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Saturday, June 26, 2021

 हिंदू धर्म में पीपल का पेड़




हिंदू धर्म में पीपल के पेड़ का लोगों के लिए काफी सम्मान और महत्व है। लोग पेड़ की पूजा करते हैं और पूजा करते हैं। लेकिन, वास्तव में इसके इतिहास और उत्पत्ति के बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं है। वैसे, पीपल के पेड़ से जुड़ी कुछ दिलचस्प किंवदंतियां भी हैं। पेड़ अपने दिल के आकार के पत्तों के लिए जाना जाता है जिसमें लंबी संकीर्ण युक्तियाँ होती हैं। पीपल के पेड़ की उत्पत्ति का पता मोहनजोदड़ो शहर में सिंधु घाटी सभ्यता (3000 ईसा पूर्व - 1700 ईसा पूर्व) के समय से लगाया जा सकता है। उत्खनन इस तथ्य का सूचक है कि उस समय भी; पीपल के पेड़ की हिंदुओं द्वारा पूजा की जाती थी। पीपल के पेड़ की उत्पत्ति के बारे में अधिक जानने के लिए पढ़ें।


वैदिक काल में पीपल के पेड़ को काटकर प्राप्त लकड़ी का उपयोग आग उत्पन्न करने के लिए किया जाता था। प्राचीन पुराणों में एक ऐसी घटना का वर्णन किया गया है जिसमें राक्षसों ने देवताओं को परास्त किया और भगवान विष्णु पीपल के पेड़ में छिप गए। चूंकि, भगवान कुछ समय के लिए पेड़ में रहते थे; पेड़ लोगों के लिए बहुत महत्व रखता है। इस प्रकार, लोगों ने पेड़ को भगवान विष्णु की पूजा करने का एक साधन मानकर उसकी पूजा करना शुरू कर दिया। कुछ किंवदंतियाँ हैं, जो बताती हैं कि भगवान विष्णु का जन्म पीपल के पेड़ के नीचे हुआ था। कुछ कहानियां हैं, जो कहती हैं कि वृक्ष देवताओं की त्रिमूर्ति का घर है, जड़ ब्रह्मा है, ट्रंक विष्णु है और पत्तियां भगवान शिव का प्रतिनिधित्व करती हैं। एक और लोकप्रिय मान्यता है कि भगवान कृष्ण की मृत्यु पीपल के पेड़ के नीचे हुई थी। पीपल या पीपल (फिकस धार्मिक) वृक्ष जिसे संस्कृत में "अश्वत्थ" के रूप में भी जाना जाता है, एक बहुत बड़ा पेड़ है और भारत में पहला ज्ञात चित्रित वृक्ष है। सिंधु घाटी सभ्यता के शहरों में से एक मोहनजोदड़ो में खोजी गई एक मुहर में पीपल की पूजा की जाती है।


उपनिषदों में भी पीपल के वृक्ष का उल्लेख मिलता है। शरीर और आत्मा के अंतर को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने के लिए, पीपल के फल को एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में प्रयोग किया जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार जिस व्यक्ति को पुत्र नहीं है, उसे पीपल के पेड़ को अपनी संतान समझना चाहिए। यह कहता है कि जब तक पीपल का पेड़ जीवित रहेगा, तब तक परिवार समृद्ध और अच्छा नाम रखेगा। पीपल के पेड़ को काटना एक बड़ा पाप माना जाता है, जो लगभग एक ब्राह्मण की हत्या के बराबर है। स्कंद पुराणों में कहा गया है कि जो व्यक्ति पेड़ को काटता है वह नरक में अवश्य जाता है।


"इस वृक्ष का वास्तविक रूप इस दुनिया में नहीं देखा जा सकता है। कोई यह नहीं समझ सकता कि यह कहाँ समाप्त होता है, कहाँ से शुरू होता है, या इसकी नींव कहाँ है। लेकिन दृढ़ संकल्प के साथ इस दृढ़ता से जड़ वाले पेड़ को वैराग्य के हथियार से काट देना चाहिए। उसके बाद , व्यक्ति को उस स्थान की तलाश करनी चाहिए, जहां से जाने के बाद, कोई वापस नहीं आता है, और वहां उस परम पुरुषोत्तम भगवान को आत्मसमर्पण करना चाहिए, जिनसे सब कुछ शुरू हुआ और जहां से सब कुछ अनादि काल से बढ़ा है।


कुछ का मानना ​​​​है कि पेड़ में त्रिमूर्ति है, जड़ें ब्रह्मा हैं, ट्रंक विष्णु और पत्तियां शिव हैं। कहा जाता है कि देवता इस पेड़ के नीचे अपनी परिषद रखते हैं और इसलिए यह आध्यात्मिक समझ से जुड़ा है।


ब्रह्म पुराण और पद्म पुराण बताते हैं कि कैसे एक बार, जब राक्षसों ने देवताओं को हराया, विष्णु पीपल में छिप गए। इसलिए विष्णु की सहज पूजा बिना उनकी मूर्ति या मंदिर के पीपल पर की जा सकती है।


स्कंद पुराण में भी पीपल को विष्णु का प्रतीक माना गया है। माना जाता है कि उनका जन्म इसी पेड़ के नीचे हुआ था। उपनिषदों में, पीपल के फल का उपयोग शरीर और आत्मा के बीच के अंतर को समझाने के लिए एक उदाहरण के रूप में किया जाता है: शरीर उस फल की तरह है, जो बाहर रहकर चीजों को महसूस करता है और भोगता है, जबकि आत्मा बीज की तरह है, जो अंदर है और इसलिए चीजों का गवाह है।



पीपल के पेड़ से जुड़ी किंवदंतियां


एक बार सभी देवताओं ने भगवान शिव के दर्शन करने का निश्चय किया। हालांकि, ऋषि नारद ने उन्हें सूचित किया कि यह यात्रा के लिए एक अनुचित समय था। लेकिन इंद्र ने सलाह नहीं मानी और देवताओं को आश्वासन दिया कि जब वे उनकी रक्षा के लिए वहां होंगे तो डरने की कोई बात नहीं है। नारद ने देवी पार्वती को इंद्र के अहंकार की सूचना दी। उसने देवताओं को श्राप दिया कि वे अपनी पत्नियों के साथ पेड़ों में बदल जाएंगे। जब देवताओं ने क्षमा मांगी, तो उन्होंने वादा किया कि पेड़ों के रूप में, वे प्रसिद्धि प्राप्त करेंगे। इस प्रकार भगवान इंद्र आम के पेड़ में बदल गए, भगवान ब्रह्मा पलाश के पेड़ बन गए और भगवान विष्णु पीपल के पेड़ में बदल गए। माना जाता है कि शनिवार को पीपल के पेड़ पर देवी लक्ष्मी का वास होता है। माना जाता है कि पीपल के पेड़ के नीचे भगवान कृष्ण की मृत्यु हुई थी। शास्त्रों में पीपल के पेड़ को काटना पाप माना गया है। पीपल के पेड़ को भगवान यम (मृत्यु के देवता) और पूर्वजों का निवास भी माना जाता है। माना जाता है कि इसकी जड़ों में चढ़ा हुआ प्रसाद उन तक पहुंचता है। एक और मिथक पीपल और शनिवार के बीच संबंध के बारे में है। क्लासिक्स के अनुसार अश्वत्था और पीपला दो राक्षस थे जिन्होंने लोगों को परेशान किया। अश्वत्थ पीपल और पीपल ब्राह्मण का रूप धारण करेंगे। नकली ब्राह्मण लोगों को पेड़ को छूने की सलाह देता था, और जैसे ही उन्होंने किया, अश्वत्था उन्हें मार डालेगा। बाद में उन दोनों को शनि ने मार डाला। इनके प्रभाव के कारण शनिवार के दिन पेड़ को छूना सुरक्षित माना जाता है। मान्यता है कि जो व्यक्ति इस पेड़ को लगाता है वह जीवन और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है।


एक अन्य किंवदंती कहती है, शनिवार को ही पीपल के पेड़ को छूना पसंद किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि एक बार की बात है, अश्वत्था और पीपल नाम के दो राक्षस थे, जो लोगों को प्रताड़ित और परेशान करते थे। अश्वत्थ ने पीपल का रूप धारण किया और पीपल ने ब्राह्मण का वेश धारण किया। ब्राह्मण लोगों को पीपल के पेड़ को छूने की सलाह देते थे और जैसे ही उन्होंने ऐसा किया, उन्हें राक्षस अश्वत्थ ने मार डाला। शनिदेव ने दोनों राक्षसों का संहार किया। शनि महाराज के प्रबल प्रभाव के कारण ही शनिवार के दिन पीपल के पेड़ को छूना सुरक्षित माना जाता है। लोगों की मान्यता है कि शनिवार के दिन देवी लक्ष्मी भी इस पेड़ में निवास करती हैं। जिन महिलाओं को पुत्र की प्राप्ति नहीं होती है, वे सूंड या उसकी शाखाओं पर लाल धागा बांधती हैं और देवताओं से उसे आशीर्वाद देने और उसकी इच्छा पूरी करने के लिए कहती हैं।


पीपल के पेड़ से संबंधित अनुष्ठान


संतान प्राप्ति या मनचाही वस्तु या व्यक्ति की प्राप्ति के लिए महिलाएं पीपल के पेड़ की परिक्रमा करती हैं। पीपल का पेड़ शनि और हनुमान के मंदिरों में लगाया जाता है। इस पेड़ की पूजा शनिवार के दिन की जाती है, खासकर श्रावण के महीने में, क्योंकि इस दिन देवी लक्ष्मी पेड़ के नीचे विराजमान होती हैं। ऐसा माना जाता है कि जो भी व्यक्ति पेड़ को सींचता है, वह अपनी संतान के लिए पुण्य अर्जित करता है, उसके दुखों का निवारण होता है और रोग दूर होते हैं। संक्रामक रोगों और शत्रुओं से बचने के लिए भी पीपल के पेड़ की पूजा की जाती है।


दो राक्षसों, अश्वथा और पीपली के बारे में भी एक और कहानी है, जिन्होंने पीपल के पेड़ को अपना घर बना लिया और पेड़ के पास आने वाले सभी पर हमला किया और उन्हें मार डाला। अंत में शनि भगवान ने दोनों असुरों का नाश किया और इसलिए माना जाता है कि शनिवार के दिन पीपल के पेड़ को छूना शुभ होता है।


बंगाल के आदिवासी पीपल के पेड़ को वासुदेव कहते हैं। वे वैशाख के महीने में और कठिनाई के समय पौधे को पानी देते हैं। बंगाल में पीपल और बरगद के पेड़ों की शादी की जाती है।


पीपल का पेड़ घर या मंदिर की पूर्व दिशा में लगाया जाता है। पेड़ लगाने के आठ या 11 या 12 साल बाद, पेड़ के लिए उपनयन संस्कार किया जाता है। पेड़ के चारों ओर एक गोल चबूतरा बनाया गया है। नारायण, वासुदेव, रुक्मिणी, सत्यभामा जैसे विभिन्न देवताओं का आह्वान और पूजा की जाती है। उपनयन संस्कार के सभी अनुष्ठान किए जाते हैं और फिर पेड़ का विवाह तुलसी के पौधे से किया जाता है।


तमिलनाडु में, पीपल और नीम के पेड़ एक-दूसरे के इतने करीब लगाए जाते हैं कि बड़े होने पर आपस में मिल जाते हैं। उनके नीचे एक नाग (साँप) की मूर्ति रखी जाती है और उसकी पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि इससे उपासक को धन की प्राप्ति होती है। महिलाएं सुबह जल्दी स्नान करती हैं और इन पेड़ों की परिक्रमा करती हैं।


अवध में, यदि किसी लड़की की कुंडली में विधवा होने की भविष्यवाणी की जाती है, तो उसका विवाह पहले चैत्र कृष्ण या आश्विन कृष्ण तृतीया पर एक पीपल के पेड़ से किया जाता है। पुराने समय में जब लड़कियों के पुनर्विवाह की मनाही थी, तो युवा विधवाओं का विवाह पीपल के पेड़ से किया जाता था और फिर पुनर्विवाह की अनुमति दी जाती थी।


महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में रहने वाले धनताले जाति के लोग विवाह समारोह में पीपल के पेड़ की एक शाखा का उपयोग करते हैं। शाखा, पानी के एक बर्तन के साथ, दूल्हा और दुल्हन के बीच रखी जाती है। ग्राम देवता को पीपल के पेड़ के नीचे स्थापित किया जाता है जो कई स्थानों पर पंचायत आयोजित करने के लिए छायांकित स्थान भी प्रदान करता है।


अमावस्या पर, ग्रामीण नीम और पीपल के बीच प्रतीकात्मक विवाह करते हैं, जो आमतौर पर एक दूसरे के पास उगाए जाते हैं। हालांकि यह प्रथा किसी भी धार्मिक ग्रंथ द्वारा निर्धारित नहीं है, लेकिन इन पेड़ों के 'विवाह' के महत्व पर विभिन्न मान्यताएं हैं। ऐसी ही एक मान्यता में, नीम का फल शिवलिंग का प्रतिनिधित्व करता है और इसलिए, नर। पीपल का पत्ता स्त्री की शक्ति योनि का प्रतिनिधित्व करता है। नीम के फल को शिवलिंग को चित्रित करने के लिए एक पीपल के पत्ते पर रखा जाता है, जो यौन मिलन के माध्यम से सृजन का प्रतीक है, और इसलिए दोनों पेड़ 'विवाहित' हैं। समारोह के बाद, ग्रामीण अपने पापों से छुटकारा पाने के लिए पेड़ों की परिक्रमा करते हैं।


वैज्ञानिक अनुसंधान


वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि पेड़ों में पीपल ही एक ऐसा पेड़ है जो दिन-रात भरपूर मात्रा में ऑक्सीजन पैदा करता है, जो जीवन के लिए बहुत जरूरी है। पीपल जीवनदायिनी ऑक्सीजन प्रदान करती है, जो इसे जीवनदायिनी सिद्ध करती है। निरंतर शोध से यह भी सिद्ध हुआ है कि पीपल के पत्तों के साथ हवा की ध्वनि और परस्पर क्रिया धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से संक्रमण के जीवाणुओं को भी मार देती है। आयुर्वेद की पुस्तक के अनुसार पीपल के पत्ते, फल और छाल रोगों के नाशक हैं। पीपल के पेड़ में मीठा और कड़वा दोनों स्वाद होता है और इसमें ठंडक देने का गुण होता है। माना जाता है कि पीपल के पत्तों पर रखा शहद चाटने से वाणी की अनियमितता दूर होती है। इसकी छाल से चमड़े के उपचार में इस्तेमाल होने वाले टैनिन का उत्पादन होता है। इसके पत्तों को घी में गर्म करने से घाव ठीक हो जाते हैं। छाल, फल और कलियों को अलग-अलग चीजों के साथ खाने से कफ, पित्त, सूजन, सूजन और अस्वस्थता आदि से संबंधित रोग ठीक हो जाते हैं। इस पेड़ की कोमल छाल और कली प्रमेह (एक रोग जिसमें वीर्य मूत्र के माध्यम से निकलता है) को ठीक करता है। इस पेड़ के फल का चूर्ण रूप भूख बढ़ाता है और कई बीमारियों को ठीक करता है

 सोने की दिशा


नींद स्वैच्छिक शारीरिक कार्यों के निलंबन और चेतना के पूर्ण या आंशिक प्राकृतिक निलंबन द्वारा वहन किए गए आराम को लेने के लिए है; जाग्रत होना बंद करो। शारीरिक रूप से, नींद शरीर के लिए बहाली और नवीनीकरण की एक जटिल प्रक्रिया है। आमतौर पर जब हम सोते हैं तो हमें यह नहीं पता होता है कि हमें अपना सिर किस दिशा में रखना है। हम जिस दिशा में सोते हैं उसका हमारे शरीर पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

 

सांस्कृतिक महत्व

 

जब पार्वती ने नहाते समय हल्दी से एक लड़का पैदा किया, जब वह स्नान कर रही थी। जब भगवान शिव लौटे तो उन्होंने एक अजनबी को उनके पास जाने से मना कर दिया, और गुस्से में लड़के के सिर पर प्रहार किया। पार्वती अत्यंत दुःख में टूट गईं और उन्हें शांत करने के लिए, शिव ने अपने दल (गण) को किसी भी सोते हुए व्यक्ति का सिर लाने के लिए भेजा, जो उत्तर की ओर मुख कर रहा था। कंपनी को एक सोता हुआ हाथी मिला और उसके कटे हुए सिर को वापस लाया, जो तब लड़के के शरीर से जुड़ा हुआ था। हिंदुओं का मानना ​​है कि उत्तर दिशा में सोने से मृत्यु होती है। परंपराओं के अनुसार दक्षिण यम (मृत्यु के देवता) की दिशा है, हमें दक्षिण में पैर नहीं रखना चाहिए और केवल एक मृत शरीर को उस स्थिति में रखना चाहिए।

अब हम समझ सकते हैं कि प्राचीन लोगों ने ऐसा क्यों कहा था, कि हमारी बुद्धि पूर्व की ओर मुख या घर से सुधरती है, और जीवन दक्षिण की ओर मुख करके लंबा होता है।

 

वैज्ञानिक कारण

 

सोते समय आपका सिर जिस दिशा में होता है, उसका आपके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। हेड प्लेसमेंट उस दिशा को संदर्भित करता है जिस दिशा में लेटते समय आपके सिर का शीर्ष इंगित करता है।

हमें सलाह दी जाती है कि उत्तर या पश्चिम दिशा में सिर करके सोने से बचें।


हम सभी जानते हैं कि हमारे ग्रह में एक चुंबकीय ध्रुव है जो उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ है और उत्तर में धनात्मक ध्रुव और दक्षिण में ऋणात्मक ध्रुव है। अब, स्वास्थ्य वैज्ञानिक हमें बताते हैं कि हमारे पास भी सिर पर सकारात्मक ध्रुव और पैरों पर नकारात्मक के साथ एक समान चुंबकीय खिंचाव है।


यह सर्वविदित है कि समान ध्रुव प्रतिकर्षित करते हैं और विपरीत ध्रुव न केवल वैज्ञानिक बल्कि सामाजिक क्षेत्रों में भी आकर्षित होते हैं। जब हम अपना सिर उत्तर की ओर रखते हैं, तो दो सकारात्मक पक्ष एक दूसरे को पीछे हटाते हैं और दोनों के बीच संघर्ष होता है।


चूंकि पृथ्वी में अधिक चुंबकीय बल है, हम हमेशा हारे हुए होते हैं, और सुबह सिरदर्द या भारीपन के साथ उठते हैं।


लाभ

 

पूर्व दिशा की ओर : शुभ। हमेशा सुनिश्चित करें कि आप अपना सिर जितना हो सके पूर्व दिशा में रखें।

दिन में सोने से बचें। रात का खाना हल्का और जल्दी करें। शहद के साथ दूध पिएं।

नसों को तनाव देने वाले गंभीर या कामुक साहित्य को पढ़ने से बचें। सोने से पहले अपने दिमाग को शांत करने के लिए कुछ मंत्रों को दोहराएं।


दक्षिण दिशा की ओर : शुभ। सोने के लिए सबसे अच्छी स्थिति यह है कि आपका सिर दक्षिण की ओर और पैर उत्तर की ओर हों।


उत्तर या पश्चिम की ओर सिर: परिणाम: खतरनाक। कभी भी अपना सिर उत्तर की ओर और पैर दक्षिण की ओर करके न सोएं। भयानक सपने और परेशान नींद लाता है। आप दुखी महसूस करेंगे। चिड़चिड़ापन, निराशा और भावनात्मक अस्थिरता विकसित होगी। जब आप सोते हैं तो यह आपके सकारात्मक स्पंदनों को चूस लेता है। आप अपनी इच्छाशक्ति का 50% खो देंगे और सोते समय आपकी आत्मा शक्ति नहीं बढ़ेगी। आपका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य खराब रहेगा।

 

उत्तर: यह पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के अनुरूप है और मानव शरीर में अशांति पैदा करेगा जिसमें उच्च लौह (हीमोग्लोबिन) सामग्री होती है और रोग लाती है और पश्चिम मस्तिष्क को सुस्त कर देता है

 

रोचक तथ्य

 

जब हम दक्षिण दिशा में अपना सिर रखते हैं, तो आपसी आकर्षण होता है और हम किसी बीमारी से पीड़ित होने तक, स्वस्थ, ताजा और मुक्त जागते हैं।


हम यह भी जानते हैं कि हमारा ग्रह पश्चिम से पूर्व की ओर घूमता है, और सूर्य का चुंबकीय क्षेत्र पूर्व की ओर से पृथ्वी में प्रवेश करता है। यह चुंबकीय बल हमारे सिर में प्रवेश करता है यदि हम पूर्व में सिर के साथ झूठ बोलते हैं और पैरों से बाहर निकलते हैं, चुंबकत्व और बिजली के नियमों के अनुसार ठंडे सिर और गर्म पैरों को बढ़ावा देते हैं। जब सिर पश्चिम की ओर रखा जाता है, ठंडे पैर और गर्म सिर - परिणाम - सुबह के लिए एक अप्रिय शुरुआत।

भगवान हनुमान के शरीर पर सिंदूर (सिंदूर) क्यों लगाया जाता है?



भारतीय समाज में सिंदूर या सिंदूर का बहुत महत्व है। विवाहित हिंदू महिलाओं द्वारा बालों के विभाजन में सिंदूर लगाने की परंपरा को अत्यंत शुभ माना जाता है और सदियों से चली आ रही है। पारंपरिक हिंदू समाज में, विवाहित हिंदू महिलाओं के लिए सिंदूर पहनना अनिवार्य माना जाता है। यह उनके पति की लंबी उम्र के लिए उनकी इच्छा की एक दृश्य अभिव्यक्ति है।


एक प्रचलित मान्यता के अनुसार, एक बार जब माता सीता अपने माथे पर सिंदूर लगा रही थीं, तो हनुमान ने इसे देखा और उनसे ऐसा करने का कारण पूछा। उसने उत्तर दिया कि सिंदूर लगाकर, उसने अपने पति भगवान राम के लिए एक लंबा जीवन सुनिश्चित किया। वह जितना अधिक सिंदूर लगाती थी, राम की आयु उतनी ही लंबी होती थी। भक्त हनुमान यह सुनकर प्रसन्न हुए और भगवान राम के भक्त होने के नाते उन्होंने राम की अमरता सुनिश्चित करने के प्रयास में अपने पूरे शरीर को सिंदूर से लगा दिया। भगवान राम के प्रति अपने प्रेम को साबित करने के लिए हनुमान ने अपने पूरे शरीर को सिंदूर से ढक दिया। भगवान राम वास्तव में इससे प्रभावित हुए और उन्होंने वरदान दिया कि जो लोग भविष्य में सिंदूर के साथ भगवान हनुमान की पूजा करेंगे, उनकी सभी मुश्किलें दूर हो जाएंगी। इसलिए हनुमान जी की मूर्ति पर हमेशा सिंदूर लगा रहता है।

 हिन्दू धर्म के अनुसार दीपक जलाने के लिए तेल का प्रयोग करें



देसी घी - पूजा और दीप जलाने के लिए गाय का घी सबसे अच्छा माना जाता है। लेकिन आजकल देसी घी के नाम पर जो बाजार में बिकता है वह देसी घी ही नहीं है। "घी" देशी देसी गाय की देशी नस्ल का होना चाहिए। यदि वैदिक प्रक्रिया द्वारा तैयार किया जाता है तो घी सकारात्मक ऊर्जा से आध्यात्मिक रूप से सक्रिय हो जाता है, इस प्रकार कुल शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक सद्भाव स्थापित होता है। अग्निपुराण घी के दीपक की सबसे अधिक प्रशंसा करता है लेकिन यह भी कहता है कि चक्रों और नाड़ियों की सफाई के लिए। घी का दीपक मणिपुर और अनाहत चक्रों को शुद्ध करता है। गाय के घी से दीपक जलाने से आसपास के वातावरण में सभी सकारात्मक स्पंदन आकर्षित होंगे। इससे दरिद्रता भी समाप्त होगी और धन, परिवार के स्वास्थ्य में सुधार होगा। इससे देवी महालक्ष्मी की कृपा भी प्राप्त होगी। असली गाय का घी सस्ता नहीं है और हालांकि हम यह ब्लॉग किसी विशेष ब्रांड को बढ़ावा देने के लिए नहीं लिख रहे हैं, फिर भी व्यक्तिगत अनुभव के माध्यम से हम कह सकते हैं कि असली गाय के घी के लिए पथमेड़ा, गोसेवा कुछ बहुत ही विश्वसनीय ब्रांड हैं। असली गाय के घी के लिए गांवों में स्थानीय गाय के दूध विक्रेता से भी संपर्क किया जा सकता है।


पंच दीपम तेल - पंच दीपा तेल या पंचदीपम तेल को सभी बुराईयों को दूर करने और अपने घर में ज्ञान, स्वास्थ्य और धन लाने के लिए एक दीपक जलाने की जोरदार सलाह दी जाती है। पंच दीपम तेल सही और शुद्ध अनुपात में 5 तेलों का मिश्रण है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आपकी प्रार्थनाओं की पवित्रता और पवित्रता सुरक्षित रहे। इन 5 तेलों में से प्रत्येक का अपना महत्व है और शुद्धतम अर्थों में सही अनुपात में मिलाया जाना चाहिए। पंच दीपम तेल से दीपक जलाने से आपके घर में सुख, स्वास्थ्य, धन, प्रसिद्धि और समृद्धि आती है। एक आदर्श पंच दीपम तेल में तिल का तेल या नारियल का तेल (35%), गाय का घी (20%), महुआ तेल (20%), अरंडी का तेल (15%) और नीम का तेल (10%) होना चाहिए, हालांकि यह बाजार में उपलब्ध है अन्य अनुपात में भी। यह गाय के घी (व्यक्तिगत रूप से अनुभवी) के बाद दूसरा सर्वश्रेष्ठ है।


तिल का तेल - तिल का तेल या अधिक लोकप्रिय रूप से जिंजेली तेल या तिल के तेल के रूप में जाना जाता है, इसके साथ एक दीपक जलाने से दोष समाप्त हो जाते हैं और बुरी आत्माओं को दूर कर देते हैं। तिल का तेल दीर्घकालिक समस्याओं को दूर करने में मदद करता है और किसी के जीवन से बाधाओं को दूर करेगा। यदि आप भगवान भैरव का मंत्र जप या साधना कर रहे हैं, तो तिल का तेल दीपक जलाने के लिए अत्यधिक अनुशंसित है। यह पंच दीपम तेल से सस्ता है, लेकिन सरसों के तेल से महंगा है।


सरसों का तेल - दीपक जलाने के लिए सरसों का तेल सबसे लोकप्रिय विकल्प है क्योंकि यह हर जगह आसानी से उपलब्ध है और जेब के अनुकूल है। दीया जलाने के लिए सरसों के तेल का प्रयोग करने से शनि ग्रह से संबंधित दोष दूर होते हैं और रोगों से भी बचाव होता है। बाजार में उपलब्ध किसी भी अन्य उत्पाद की तरह सरसों का तेल शुद्ध से लेकर मिश्रित तक कई गुणों में आता है। हमारे द्वारा आजमाए गए लोकप्रिय ब्रांड पतंजलि, गुरुकुल, स्वदेशी आदि हैं। कोई भी स्थानीय तेल मिल से संपर्क कर सकता है और सरसों के तेल का शुद्धतम रूप प्राप्त कर सकता है।


नारियल का तेल - दक्षिण भारत में नारियल तेल तेल का अधिक लोकप्रिय विकल्प है। कहा जाता है कि पूजा के दीयों में इसका प्रयोग करने से गणेश जी प्रसन्न होते हैं। नारियल तेल का शुद्धतम रूप बाजार में आसानी से उपलब्ध है।


अन्य तेल - नीम, महुआ, अरंडी, चमेली का तेल आदि कम लोकप्रिय तेल हैं जिनका उपयोग दीयों को जलाने के लिए किया जाता है, लेकिन कोई इनका उपयोग कर सकता है। अधिकतर बार इन्हें सुचारू उपयोग के लिए अन्य तेलों के साथ मिश्रित किया जाता है।

 श्री दुर्गा आपदुद्धाराष्टकम्


नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकम्पे नमस्ते जगद्व्यापिके विश्वरूपे |

नमस्ते जगद्वन्द्यपादारविन्दे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||१||


नमस्ते जगच्चिन्त्यमानस्वरूपे नमस्ते महायोगिविज्ञानरूपे |

नमस्ते नमस्ते सदानन्द रूपे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||२||


अनाथस्य दीनस्य तृष्णातुरस्य भयार्तस्य भीतस्य बद्धस्य जन्तोः |

त्वमेका गतिर्देवि निस्तारकर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||३||


अरण्ये रणे दारुणे शुत्रुमध्ये जले सङ्कटे राजग्रेहे प्रवाते |

त्वमेका गतिर्देवि निस्तार हेतुर्नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||४||


अपारे महदुस्तरेऽत्यन्तघोरे विपत् सागरे मज्जतां देहभाजाम् |

त्वमेका गतिर्देवि निस्तारनौका नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||५||


नमश्चण्डिके चण्डोर्दण्डलीलासमुत्खण्डिता खण्डलाशेषशत्रोः |

त्वमेका गतिर्विघ्नसन्दोहहर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||६||


त्वमेका सदाराधिता सत्यवादिन्यनेकाखिला क्रोधना क्रोधनिष्ठा |

इडा पिङ्गला त्वं सुषुम्ना च नाडी नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||७||


नमो देवि दुर्गे शिवे भीमनादे सरस्वत्यरुन्धत्यमोघस्वरूपे  |

विभूतिः सतां कालरात्रिस्वरूपे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||८||


शरणमसि सुराणां सिद्धविद्याधराणां मुनिदनुजवराणां व्याधिभिः पीडितानाम् |

नृपतिगृहगतानां दस्युभिस्त्रासितानां त्वमसि शरणमेका देवि दुर्गे प्रसीद ||९||


|| इति सिद्धेश्वरतन्त्रे हरगौरीसंवादे आपदुद्धाराष्टकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ||

 देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्

न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो

न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः।

न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं

परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम ॥१॥

 

विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया

विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्।

तदेतत्क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥२॥

 

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः

परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः।

मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥३॥

 

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता

न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया।

तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥४॥

 

परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया

मया पच्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि।

इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता

निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम ॥५॥

 

श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा

निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः।

तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं

जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ ॥६॥

 

चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो

जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः।

कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं

भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम ॥७॥

 

न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे

न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः।

अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै

मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ॥८॥

 

नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः

किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः।

श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे

धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव ॥९॥

 

आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं

करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि।

नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः

क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ॥१०॥

 

जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि।

अपराधपरम्परावृतं न हि माता समुपेक्षते सुतम ॥११॥

 

मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि।

एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु ॥१२॥

 

॥इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्॥

 II श्री मंगलचंडिकास्तोत्रम् II 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सर्वपूज्ये देवी मङ्गलचण्डिके I 

ऐं क्रूं फट् स्वाहेत्येवं चाप्येकविन्शाक्षरो मनुः II 

पूज्यः कल्पतरुश्चैव भक्तानां सर्वकामदः I

दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् II

मन्त्रसिद्धिर्भवेद् यस्य स विष्णुः सर्वकामदः I

ध्यानं च श्रूयतां ब्रह्मन् वेदोक्तं सर्व सम्मतम् II 

देवीं षोडशवर्षीयां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् I 

सर्वरूपगुणाढ्यां च कोमलाङ्गीं मनोहराम् II 

श्वेतचम्पकवर्णाभां चन्द्रकोटिसमप्रभाम् I

वन्हिशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् II 

बिभ्रतीं कबरीभारं मल्लिकामाल्यभूषितम् I

बिम्बोष्टिं सुदतीं शुद्धां शरत्पद्मनिभाननाम् II 

ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां सुनीलोल्पललोचनाम् I 

जगद्धात्रीं च दात्रीं च सर्वेभ्यः सर्वसंपदाम् II 

संसारसागरे घोरे पोतरुपां वरां भजे II 

देव्याश्च ध्यानमित्येवं स्तवनं श्रूयतां मुने I

प्रयतः संकटग्रस्तो येन तुष्टाव शंकरः II 

शंकर उवाच रक्ष रक्ष जगन्मातर्देवि मङ्गलचण्डिके I

हारिके विपदां राशेर्हर्षमङ्गलकारिके II 

हर्षमङ्गलदक्षे च हर्षमङ्गलचण्डिके I 

शुभे मङ्गलदक्षे च शुभमङ्गलचण्डिके II

मङ्गले मङ्गलार्हे च सर्व मङ्गलमङ्गले I 

सतां मन्गलदे देवि सर्वेषां मन्गलालये II 

पूज्या मङ्गलवारे च मङ्गलाभीष्टदैवते I 

पूज्ये मङ्गलभूपस्य मनुवंशस्य संततम् II 

मङ्गलाधिष्टातृदेवि मङ्गलानां च मङ्गले I 

संसार मङ्गलाधारे मोक्षमङ्गलदायिनि II

सारे च मङ्गलाधारे पारे च सर्वकर्मणाम् I 

प्रतिमङ्गलवारे च पूज्ये च मङ्गलप्रदे II 

स्तोत्रेणानेन शम्भुश्च स्तुत्वा मङ्गलचण्डिकाम् I 

प्रतिमङ्गलवारे च पूजां कृत्वा गतः शिवः II

देव्याश्च मङ्गलस्तोत्रं यः श्रुणोति समाहितः I

तन्मङ्गलं भवेच्छश्वन्न भवेत् तदमङ्गलम् II

II इति श्री ब्रह्मवैवर्ते मङ्गलचण्डिका स्तोत्रं संपूर्णम् II 

 


 Maa Durga Mantras ( मां दुर्गा के मंत्र )



यहाँ आप कई प्रकार के माँ दुर्गा के मंत्र पा सकता है जिससे आप कई मुसीबतों से बाहर आ सकते है अपने जीवन में। पूर्ण श्रद्धा से किया गया मंत्र उच्चारण फल अवश्य देता है ।


1. उपयुक्त इच्छा को पूरा करने के लिए दुर्गा मंत्र । यह मंत्र सभी प्रकार की सिद्धिः को पाने में मदद करता है, यह मंत्र सबसे प्रभावी और गुप्त मंत्र माना जाता है और सभी उपयुक्त इच्छाओं को पूरा करने की शक्ति इस मंत्र में होती है।


ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नम:


2. यह देवी माँ का बहुत लोकप्रिय मंत्र है। यह मंत्र देवी प्रदर्शन के समारोहों में आवश्यक है।

दुर्गा सप्तशती प्रदर्शन से पहले इस मंत्र को सुनाना आवश्यक है।इस मंत्र की शक्ति : यह मंत्र दोहराने से हमें सुंदरता ,बुद्धि और समृद्धि मिलती है। यह आत्म की प्राप्ति में मदद करता है।


"ॐ अंग ह्रींग क्लींग चामुण्डायै विच्चे "


3. गौरी मंत्र लायक पति मिलने के लिए दुर्गा मंत्र 


" हे गौरी शंकरधंगी ! यथा तवं शंकरप्रिया,

तथा मां कुरु कल्याणी ! कान्तकान्तम् सुदुर्लभं "


4. दुर्गा सप्तशती से शक्तिशाली मंत्र , सब प्रकार के कल्याण के लिये दुर्गा मंत्र 


“सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।

शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥”


5.धन प्राप्ति के लिए दुर्गा मंत्र 


“दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो:

स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।

दारिद्र्यदु:खभयहारिणि का त्वदन्या

सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽ‌र्द्रचित्ता॥”


6.आकर्षण के लिए दुर्गा मंत्र 


“ॐ क्लींग ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती ही सा,

बलादाकृष्य मोहय महामाया प्रयच्छति "


7. विपत्ति नाश के लिए दुर्गा मंत्र 


“शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।

सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥”


8.शक्ति प्राप्ति के लिए दुर्गा मंत्र 


सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि।

गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥


9.रक्षा पाने के लिए दुर्गा मंत्र 


शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।

घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि:स्वनेन च॥


10. आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति के लिए दुर्गा मंत्र 


देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥


11. भय नाश के लिए दुर्गा मंत्र 


“सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।

भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥


12. महामारी नाश के लिए दुर्गा मंत्र 


जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥


13. सुलक्षणा पत्नी की प्राप्ति के लिए दुर्गा मंत्र 


पत्‍‌नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।

तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥


14. पाप नाश के लिए दुर्गा मंत्र 


हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।

सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽन: सुतानिव॥


15. भुक्ति-मुक्ति की प्राप्ति के लिए दुर्गा मंत्र 


विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि


16. सभी के कल्याण के लिए दुर्गा मंत्र


देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या

निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूत्र्या।

तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां

भकत्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा न: ।।


17. शक्तिशाली दुर्गा मंत्र हर तरह के भय एवं संकट से आपकी रक्षा के लिए


रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र |

दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम् ||


18. विघ्नों के नाश, दुर्जनों व शत्रुओं को मात व अहंकार के नाश के लिए दुर्गा गायत्री मंत्र 


ॐ गिरिजायै विद्महे शिव धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ||

 Navdurga ( नवदुर्गा )- The nine forms of Goddess Durga


पौराणिक मान्यता है कि शक्ति ही संसार का कारण है, जो अनेक रूपों में हमारे अंदर और आस-पास चर-अचर, जड़-चेतन, सजीव-निर्जीव सभी में अनेक रूपों में समाई है। शक्ति के इसी महत्व को जानते हुए हिन्दू धर्म के शास्त्र-पुराणों में शक्ति उपासना व जागरण की महिमा बताई गई है। जिससे मर्यादा और संयम के द्वारा शक्ति संचय व सदुपयोग का संदेश जुड़ा है। धार्मिक परंपराओं में नवरात्रि के रूप में प्रसिद्ध इस विशेष घड़ी में शक्ति की देवी के रूप में पूजा होती है। जिनमें शक्ति के 3 स्वरूप महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती प्रमुख रूप से पूजनीय है। जिनको बल, वैभव और ज्ञान की देवी माना गया है। इसी तरह धर्मग्रंथों में सांसारिक जीवन में अलग-अलग रूपों में शक्ति संपन्नता के लिए शक्ति के नौ स्वरूपों यानी नवदुर्गा की पूजा का महत्व बताया गया है। नवदुर्गा का अर्थ है दुर्गा के नौ स्वरूप। दुर्गा को दुर्गति का नाश करने वाली कहा जाता है। चूंकि नवरात्रि में रात में शक्ति पूजा का महत्व है। इसी कारण मान्यता है कि नवरात्रि की नौ रातों में नौ शक्तियों वाली दुर्गा के अलग-अलग स्वरूपों की पूजा अलग-अलग कामनाओं को पूरा कर रातों-रात बलवान, बुद्धिमान और धनवान बना देती है। जानें, नवरात्रि की नौ रात किस देवी के अद्भुत स्वरुप की भक्ति पूरी करती है कौन-सी इच्छा?


1. शैलपुत्री - नवरात्रि के पहले दिन मां शैलपुत्री की उपासना की जाती है। यह कल्याणी भी कही जाती है। इनकी उपासना से सुखी और निरोगी जीवन मिलता है।


2. ब्रह्मचारिणी- नवरात्रि के दूसरे दिन तपस्विनी रूप मां ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है। इनकी उपासना से पुरूषार्थ, अध्यात्मिक सुख और मोक्ष देने वाली होती है। सरल शब्दों में प्रसन्नता, आनंद और सुख के लिए इस शक्ति की साधना का महत्व है।


3. चंद्रघंटा - नवरात्रि की तीसरे दिन नवदुर्गा के तीसरी शक्ति चंद्रघंटा को पूजा जाता है। इनकी भक्ति जीवन से सभी भय दूर करने वाली मानी गई है।


4. कूष्मांडा - नवरात्रि के चौथे दिन मां कूष्मांडा की उपासना का महत्व है। यह उपासना भक्त के जीवन से कलह, शोक का अंत कर लंबी उम्र और सम्मान देने वाली होती है।


5. स्कंदमाता - नवरात्रि के पांचवे दिन स्कन्दमाता की पूजा की जाती है। माता की उपासना जीवन में प्रेम, स्नेह और शांति लाने वाली मानी गई है।


6. कात्यायनी - नवरात्रि के छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा का महत्व है। माता की पूजा व्यावहारिक जीवन की बाधाओं को दूर करने के साथ तन और मन को ऊर्जा और बल देने वाली मानी गई है।


7. कालरात्रि - नवरात्रि के सातवें दिन दुर्गा के तामसी स्वरूप मां कालरात्रि की उपासना की जाती है, किंतु सांसारिक जीवों के लिये यह स्वरूप शुभ और काल से रक्षा करने वाला है। इनकी उपासना पराक्रम और विपरीत हालात में भी शक्ति देने वाला होता है।


8. महागौरी - नवरात्रि के आठवें दिन महागौरी की पूजा की जाती है। मां का यह करूणामयी रूप है। इनकी उपासना भक्त को अक्षय सुख देने वाली मानी गई है।


9. सिद्धिदात्री - नवरात्रि के अंतिम या नौवे दिन मां सिद्धिदात्री की उपासना का महत्व है। इनकी उपासना समस्त सिद्धि देने वाली होती है। व्यावहारिक जीवन के नजरिए से ज्ञान, विद्या, कौशल, बल, विचार, बुद्धि में पारंगत होने के लिए माता सिद्धिदात्री की उपासना बहुत ही प्रभावी होती है।


 श्री दत्तात्रेयस्तोत्रम्


जटाधरं पाण्डुरंगं शूलहस्तं दयानिधिम्।
सर्वरोगहरं देवं दत्तात्रेयमहं भजे ॥१॥
जगदुत्पत्तिकर्त्रे च स्थितिसंहारहेतवे।
भवपाशविमुक्ताय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥२॥
जराजन्मविनाशाय देहशुद्धिकराय च।
दिगंबर दयामूर्ते दत्तात्रेय नमोस्तुते॥३॥
कर्पूरकान्तिदेहाय ब्रह्ममूर्तिधराय च।
वेदशास्स्त्रपरिज्ञाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥४॥
ह्रस्वदीर्घकृशस्थूलनामगोत्रविवर्जित!
पञ्चभूतैकदीप्ताय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥५॥
यज्ञभोक्त्रे च यज्ञेय यज्ञरूपधराय च।
यज्ञप्रियाय सिद्धाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥६॥
आदौ ब्रह्मा मध्ये विष्णुरन्ते देवः सदाशिवः।
मूर्तित्रयस्वरूपाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥७॥
भोगालयाय भोगाय योगयोग्याय धारिणे।
जितेन्द्रिय जितज्ञाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥८॥
दिगंबराय दिव्याय दिव्यरूपधराय च।
सदोदितपरब्रह्म दत्तात्रेय नमोस्तुते॥९॥
जंबूद्वीप महाक्षेत्र मातापुरनिवासिने।
भजमान सतां देव दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१०॥
भिक्षाटनं गृहे ग्रामे पात्रं हेममयं करे।
नानास्वादमयी भिक्षा दत्तात्रेय नमोस्तुते॥११॥
ब्रह्मज्ञानमयी मुद्रा वस्त्रे चाकाशभूतले।
प्रज्ञानघनबोधाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१२॥
अवधूत सदानन्द परब्रह्मस्वरूपिणे ।
विदेह देहरूपाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१३॥
सत्यरूप! सदाचार! सत्यधर्मपरायण!
सत्याश्रय परोक्षाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१४॥
शूलहस्त! गदापाणे! वनमाला सुकन्धर!।
यज्ञसूत्रधर ब्रह्मन् दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१५॥
क्षराक्षरस्वरूपाय परात्परतराय च।
दत्तमुक्तिपरस्तोत्र! दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१६॥
दत्तविद्याड्यलक्ष्मीश दत्तस्वात्मस्वरूपिणे।
गुणनिर्गुणरूपाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१७॥
शत्रुनाशकरं स्तोत्रं ज्ञानविज्ञानदायकम्।
आश्च सर्वपापं शमं याति दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१८॥
इदं स्तोत्रं महद्दिव्यं दत्तप्रत्यक्षकारकम्।
दत्तात्रेयप्रसादाच्च नारदेन प्रकीर्तितम् ॥१९॥
इति श्रीनारदपुराणे नारदविरचितं
श्रीदत्तात्रेय स्तोत्रं संपुर्णमं।।
।। श्रीगुरुदेव दत्त ।।
 मां धूमावती अष्टक स्तोत्रं


।।अथ स्तोत्रं।।
प्रातर्या स्यात्कुमारी कुसुमकलिकया जापमाला जपन्ती,
मध्याह्ने प्रौढरूपा विकसितवदना चारुनेत्रा निशायाम्।
सन्ध्यायां वृद्धरूपा गलितकुचयुगा मुण्डमालां,
वहन्ती सा देवी देवदेवी त्रिभुवनजननी कालिका पातु युष्मान्।।१।।
बद्ध्वा खट्वाङ्गकोटौ कपिलवरजटामण्डलम्पद्मयोने:,
कृत्वा दैत्योत्तमाङ्गैस्स्रजमुरसि शिर शेखरन्तार्क्ष्यपक्षै:।
पूर्णं रक्तै्सुराणां यममहिषमहाशृङ्गमादाय पाणौ,
पायाद्वो वन्द्यमानप्रलयमुदितया भैरव: कालरात्र्याम्।।२।।
चर्वन्तीमस्थिखण्डम्प्रकटकटकटाशब्दशङ्घातम्,
उग्रङ्कुर्वाणा प्रेतमध्ये कहहकहकहाहास्यमुग्रङ्कृशाङ्गी।
नित्यन्नित्यप्रसक्ता डमरुडिमडिमां स्फारयन्ती मुखाब्जम्,
पायान्नश्चण्डिकेयं झझमझमझमा जल्पमाना भ्रमन्ती।।३।।
टण्टण्टण्टण्टटण्टाप्रकरटमटमानाटघण्टां वहन्ती,
स्फेंस्फेंस्फेंस्कारकाराटकटकितहसा नादसङ्घट्टभीमा।
लोलम्मुण्डाग्रमाला ललहलहलहालोललोलाग्रवाचञ्चर्वन्ती,
चण्डमुण्डं मटमटमटिते चर्वयन्ती पुनातु।।४।।
वामे कर्णे मृगाङ्कप्रलयपरिगतन्दक्षिणे सूर्यबिम्बङ्कण्ठे,
नक्षत्रहारंव्वरविकटजटाजूटके मुण्डमालाम्।
स्कन्धे कृत्वोरगेन्द्रध्वजनिकरयुतम्ब्रह्मकङ्कालभारं,
संहारे धारयन्ती मम हरतु भयम्भद्रदा भद्रकाली।।५।।
तैलाभ्यक्तैकवेणी त्रपुमयविलसत्कर्णिकाक्रान्तकर्णा,
लौहेनैकेन कृत्वा चरणनलिनकामात्मन: पादशोभाम्।
दिग्वासा रासभेन ग्रसति जगदिदंय्या यवाकर्णपूरा,
वर्षिण्यातिप्रबद्धा ध्वजविततभुजा सासि देवि त्वमेव।।६।।
सङ्ग्रामे हेतिकृत्वैस्सरुधिरदशनैर्यद्भटानां,
शिरोभिर्मालामावद्ध्य मूर्ध्नि ध्वजविततभुजा त्वं श्मशाने प्रविष्टा।
दृष्टा भूतप्रभूतैः पृथुतरजघना वद्धनागेन्द्रकाञ्ची,
शूलग्रव्यग्रहस्ता मधुरुधिरसदा ताम्रनेत्रा निशायाम्।।७।।
दंष्ट्रा रौद्रे मुखेऽस्मिंस्तव विशति जगद्देवि सर्वं क्षणार्द्धात्,
संसारस्यान्तकाले नररुधिरवशा सम्प्लवे भूमधूम्रे।
काली कापालिकी साशवशयनतरा योगिनी योगमुद्रा रक्तारुद्धिः,
सभास्था भरणभयहरा त्वं शिवा चण्डघण्टा।।८।।
धूमावत्यष्टकम्पुण्यं सर्वापद्विनिवारकम्,
य: पठेत्साधको भक्त्या सिद्धिं व्विन्दन्ति वाञ्छिताम्।।९।।
महापदि महाघोरे महारोगे महारणे,
शत्रूच्चाटे मारणादौ जन्तूनाम्मोहने तथा।।१०।।
पठेत्स्तोत्रमिदन्देवि सर्वत्र सिद्धिभाग्भवेत्,
देवदानवगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगा:।।११।।
सिंहव्याघ्रादिकास्सर्वे स्तोत्रस्मरणमात्रत:,
दूराद्दूरतरं य्यान्ति किम्पुनर्मानुषादय:।।१२।।
स्तोत्रेणानेन देवेशि किन्न सिद्ध्यति भूतले,
सर्वशान्तिर्ब्भवेद्देवि ह्यन्ते निर्वाणतां व्व्रजेत्।।१३।।
।।इत्यूर्द्ध्वाम्नाये धूमावतीअष्टक स्तोत्रं समाप्तम्।।

Saturday, June 19, 2021

 श्री चन्द्र कवचम्


॥ ॐ गण गणपतये नमः ॥
अस्य श्रीचन्द्रकवचस्तोत्रमन्त्रस्य गौतम् ऋषिः ।
अनुष्टुप् छन्दः, श्रीचन्द्रो देवता, चन्द्रप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः ।
समं चतुर्भुजं वन्दे केयूरमुकुटोज्ज्वलम् ।
वासुदेवस्य नयनं शङ्करस्य च भूषणम् ॥ १॥
एवं ध्यात्वा जपेन्नित्यं शशिनः कवचं शुभम् ।
शशी पातु शिरोदेशं भालं पातु कलानिधिः ॥ २॥
चक्षुषी चन्द्रमाः पातु श्रुती पातु निशापतिः ।
प्राणं क्षपाकरः पातु मुखं कुमुदबान्धवः ॥ ३॥
पातु कण्ठं च मे सोमः स्कन्धे जैवातृकस्तथा ।
करौ सुधाकरः पातु वक्षः पातु निशाकरः ॥ ४॥
हृदयं पातु मे चन्द्रो नाभिं शङ्करभूषणः ।
मध्यं पातु सुरश्रेष्ठः कटिं पातु सुधाकरः ॥ ५॥
ऊरू तारापतिः पातु मृगाङ्को जानुनी सदा ।
अब्धिजः पातु मे जङ्घे पातु पादौ विधुः सदा ॥ ६॥
सर्वाण्यन्यानि चाङ्गानि पातु चन्द्वोऽखिलं वपुः ।
एतद्धि कवचं दिव्यं भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ ७॥ 
॥ इति श्री चन्द्र कवचं सम्पूर्णम् ॥
 श्री चामुण्डा देवी चालीसा 


॥ दोहा ॥
नीलवरण मा कालिका रहती सदा प्रचंड ।
दस हाथो मई ससत्रा धार देती दुस्त को दांड्ड़ ॥
मधु केटभ संहार कर करी धर्म की जीत ।
मेरी भी बढ़ा हरो हो जो कर्म पुनीत ॥

॥ चौपाई ॥
नमस्कार चामुंडा माता । तीनो लोक मई मई विख्याता ॥
हिमाल्या मई पवितरा धाम है । महाशक्ति तुमको प्रडम है ॥१॥
मार्कंडिए ऋषि ने धीयया । कैसे प्रगती भेद बताया ॥
सूभ निसुभ दो डेतिए बलसाली । तीनो लोक जो कर दिए खाली ॥२॥
वायु अग्नि याँ कुबेर संग । सूर्या चंद्रा वरुण हुए तंग ॥
अपमानित चर्नो मई आए । गिरिराज हिमआलये को लाए ॥३॥
भद्रा-रॉंद्र्रा निट्टया धीयया । चेतन शक्ति करके बुलाया ॥
क्रोधित होकर काली आई । जिसने अपनी लीला दिखाई ॥४॥
चंदड़ मूंदड़ ओर सुंभ पतए । कामुक वेरी लड़ने आए ॥
पहले सुग्गृीव दूत को मारा । भगा चंदड़ भी मारा मारा ॥५॥
अरबो सैनिक लेकर आया । द्रहूँ लॉकंगन क्रोध दिखाया ॥
जैसे ही दुस्त ललकारा । हा उ सबद्ड गुंजा के मारा ॥६॥
सेना ने मचाई भगदड़ । फादा सिंग ने आया जो बाद ॥
हत्टिया करने चंदड़-मूंदड़ आए । मदिरा पीकेर के घुर्रई ॥७॥
चतुरंगी सेना संग लाए । उचे उचे सीविएर गिराई ॥
तुमने क्रोधित रूप निकाला । प्रगती डाल गले मूंद माला ॥८॥
चर्म की सॅडी चीते वाली । हड्डी ढ़ाचा था बलसाली ॥
विकराल मुखी आँखे दिखलाई । जिसे देख सृिस्टी घबराई ॥९॥
चंदड़ मूंदड़ ने चकरा चलाया । ले तलवार हू साबद गूंजाया ॥
पपियो का कर दिया निस्तरा । चंदड़ मूंदड़ दोनो को मारा ॥१०॥
हाथ मई मस्तक ले मुस्काई । पापी सेना फिर घबराई ॥
सरस्वती मा तुम्हे पुकारा । पड़ा चामुंडा नाम तिहरा ॥११॥
चंदड़ मूंदड़ की मिरतट्यु सुनकर । कालक मौर्या आए रात पर ॥
अरब खराब युध के पाठ पर । झोक दिए सब चामुंडा पर ॥१२॥
उगर्र चंडिका प्रगती आकर । गीडदीयो की वाडी भरकर ॥
काली ख़टवांग घुसो से मारा । ब्रह्माड्ड ने फेकि जल धारा ॥१३॥
माहेश्वरी ने त्रिशूल चलाया । मा वेश्दवी कक्करा घुमाया ॥
कार्तिके के शक्ति आई । नार्सिंघई दित्तियो पे छाई ॥१४॥
चुन चुन सिंग सभी को खाया । हर दानव घायल घबराया ॥
रक्टतबीज माया फेलाई । शक्ति उसने नई दिखाई ॥१५॥
रक्त्त गिरा जब धरती उपर । नया डेतिए प्रगता था वही पर ॥
चाँदी मा अब शूल घुमाया । मारा उसको लहू चूसाया ॥१६॥
सूभ निसुभ अब डोडे आए । सततर सेना भरकर लाए ॥
वाज्ररपात संग सूल चलाया । सभी देवता कुछ घबराई ॥१७॥
ललकारा फिर घुसा मारा । ले त्रिसूल किया निस्तरा ॥
सूभ निसुभ धरती पर सोए । डेतिए सभी देखकर रोए ॥१८॥
कहमुंडा मा ध्ृम बचाया । अपना सूभ मंदिर बनवाया ॥
सभी देवता आके मानते । हनुमत भेराव चवर दुलते ॥१९॥
आसवीं चेट नवराततरे अओ । धवजा नारियल भेट चाड़ौ ॥
वांडर नदी सनन करऔ । चामुंडा मा तुमको पियौ ॥२०॥


॥ दोहा ॥
सरणागत को शक्ति दो हे जाग की आधार ।
‘ओम’ ये नेया दोलती कर दो भाव से पार ॥ 
॥ इति चामुण्डा देवी चालीसा सम्पूर्णम ॥
 अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं, राम नारायणं जानकी वल्लभं || 
अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं, राम नारायणं जानकी वल्लभं || 


कौन कहता है भगवान आते नहीं, तुम मीरा के जैसे बुलाते नहीं |
अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं, राम नारायणं जानकी वल्लभं ||


कौन कहता है भगवान खाते नहीं, बेर शबरी के जैसे खिलते नहीं |
अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं, राम नारायणं जानकी वल्लभं ||


कौन कहता है भगवान सोते नहीं, माँ यशोदा के जैसे सुलाते नहीं |
अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं, राम नारायणं जानकी वल्लभं ||


कौन कहता है भगवान नाचते नहीं, तुम गोपी के जैसे नचाते नहीं |
अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं, राम नारायणं जानकी वल्लभं ||


अच्युतम केशवं कृष्ण दामोदरं, राम नारायणं जानकी वल्लभं ||
 जैसे सूरज की गर्मी से जलते
जैसे सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को
मिल जाये तरुवर की छाया
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है,
मैं जब से शरण तेरी आया, मेरे राम
सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को
मिल जाये तरुवर की छाया
भटका हुआ मेरा मन था कोई
मिल ना रहा था सहारा
लहरों से लडती हुई नाव को जैसे,
मिल ना रहा हो किनारा
उस लडखडाती हुई नाव को जो
किसी ने किनारा दिखाया
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है,
मैं जब से शरण तेरी आया, मेरे राम
सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को
मिल जाये तरुवर की छाया
शीतल बने आग चन्दन के जैसी
राघव कृपा हो जो तेरी
उजयाली पूनम की हो जाये राते
जो थी अमावस अँधेरी
युग युग से प्यासी मुरुभूमि ने
जैसे सावन का संदेस पाया
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है,
मैं जब से शरण तेरी आया, मेरे राम
सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को
मिल जाये तरुवर की छाया
जिस राह की मंजिल तेरा मिलन हो
उस पर कदम मैं बढ़ाऊं
फूलों मे खारों मे, पतझड़ बहारो मे
मैं ना कभी डगमगाऊँ
पानी के प्यासे को तकदीर ने
जैसे जी भर के अमृत पिलाया
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है,
मैं जब से शरण तेरी आया, मेरे राम
सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को
मिल जाये तरुवर की छाया
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है,
मैं जब से शरण तेरी आया, मेरे राम
 श्री बटुक भैरव कवचम्


महादेव उवाच
प्रीयतां भैरवोदेव नमो वै भैरवाय च।
देवेशि देहरक्षार्थ कारणं कथ्यतां ध्रुवम्।।
मियन्ते साधका येन विना श्मशानभूमिषु।
रणेषु चातिघोरेषु महामृत्यु भयेषु च।।
श्रृंगी सलिलवज्रेषु ज्वरादिव्याधि यह्निषु ।।


देव्युवाच -
कथयामि श्रृणु प्राज्ञ बटुककवचं शुभम्।
गोपनीयं प्रयत्नेन मातृकाजारजो यथा।।
ॐ अस्य श्री बटुकभैरवकवचस्य आनन्द भैरव ऋषि: त्रिष्टुप्छंद: श्री बटुकभैरवो देवता बंवीजं ह्रीं शक्ति: ॐ बटुकायेति कीलकं ममाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः।
ॐ सहस्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरुः।
पातु मां बटुकोदेवो भैरवः सर्वकर्मसु।।
पूर्वस्यां असितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा ।
चाग्नेयां च रुरुः पातु दक्षिणे चण्ड भैरव: । ।
नैऋत्यां क्रोधनः पातु उन्मत्तः पातु पश्चिमे।
वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात् सुरेश्वरः।।
भीषणो भैरवः पातु उत्तरस्यां तु सर्वदा ।
संहार भैरवः पायात् ईशान्यां च महेश्वरः ।।
ऊर्ध्व पातु विधाता च पाताले नन्दको विभुः।
सद्योजातस्तु मां पायात् सर्वतो देवसेवितः।।
वामदेयो बनान्ते च बने घोररतथाऽवतु।
जले तत्पुरुषा पातु स्थले ईशान एव च।।
डाकिनी पुत्रकः पातु पुत्रान् मे सर्वतः प्रभुः।
हाकिनी पुत्रकः पातु दारांस्तु लाकिनी सुतः।।
पातु शाकिनिकापुत्रः सैन्यं मे कालभैरवः ।
मालिनी पुत्रकःपातु पशूनश्यान् गजांस्तथा ।।
महाकालोऽक्षेत्रं श्रियं मे सर्वतो गिरा।
वाद्यं बाद्यप्रियः पातु भैरवो नित्यसम्पदा।।
एतद् कवचमीशान तव स्नेहात्प्रकाशितम्।
नाख्येयं नरलोकेषु सारभूतं सुरप्रियम्।।
यस्मै कस्मै न दातव्यं कवचं सुरदुर्लभम्।
न देयं पर शिष्येभ्यः कृपणेभ्यश्च शंकर।।
यो ददाति निषिद्धेभ्यः सर्वभ्रप्ो भवेत्किल।
अनेन कवचेनैव रक्षां कृत्वा विचक्षणः।।
विरचरन्त्यत्र कुत्रापि न विघ्नैः परिभूयते।
मन्त्रेण रक्षिते योगी कवचं रक्षकं यतः।।
तरमात्सर्व प्रयत्नेन दुर्लभं पाप चेतसाम् ।
भुर्जे रंभात्वचि वापि लिखित्वा विधिवत्प्भो। ।
कुंकुमेनाप्टगन्धेन गोरोचनैश्च केशरैः।
धारयेत्पाठयेद्धपि संपठेद्वापि नित्यशः।।
सम्प्राप्नोति फलं सर्वं नात्र कार्या विचारणा।
सततं पठ्यते यत्र तत्र भैरव संस्थितिः।।
न शक्नोमि प्रभावं वै कवचस्यास्यवर्णितुम्।
नमो भैरवदेवाय सर्वभूताय वै नमः।।
नमसैलोक्य नाथाय नाथनाथाय वै नमः ।।
।। इति बटुक भैरव तन्त्रोक्तं भैरवकवचम् ।।
 तांत्रोक्त भैरव कवच 




 
ॐ सहस्त्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरुः |
पातु मां बटुको देवो भैरवः सर्वकर्मसु ||
पूर्वस्यामसितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा |
आग्नेयां च रुरुः पातु दक्षिणे चण्ड भैरवः ||
नैॠत्यां क्रोधनः पातु उन्मत्तः पातु पश्चिमे |
वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात् सुरेश्वरः ||
भीषणो भैरवः पातु उत्तरास्यां तु सर्वदा |
संहार भैरवः पायादीशान्यां च महेश्वरः ||
ऊर्ध्वं पातु विधाता च पाताले नन्दको विभुः |
सद्योजातस्तु मां पायात् सर्वतो देवसेवितः ||
रामदेवो वनान्ते च वने घोरस्तथावतु |
जले तत्पुरुषः पातु स्थले ईशान एव च ||
डाकिनी पुत्रकः पातु पुत्रान् में सर्वतः प्रभुः |
हाकिनी पुत्रकः पातु दारास्तु लाकिनी सुतः ||
पातु शाकिनिका पुत्रः सैन्यं वै कालभैरवः |
मालिनी पुत्रकः पातु पशूनश्वान् गंजास्तथा ||
महाकालोऽवतु क्षेत्रं श्रियं मे सर्वतो गिरा |
वाद्यम् वाद्यप्रियः पातु भैरवो नित्यसम्पदा |
 श्री भैरव स्तुति || 



ॐ जै-जै भैरवबाबा स्वामी जै भैरवबाबा।
नमो विश्व भूतेश भुजंगी मंजुल कहलावा
उमानंद अमरेश विमोचन जनपद सिरनावा।
काशी के कृतवाल आपको सकल जगत ध्यावा।
स्वान सवारी बटुकनाथ प्रभु पी मद हर्षावा। ॐ।।
रवि के दिन जग भोग लगावे मोदक मन भावा।
भीषण भीम कृपालु त्रिलोचन खप्पर भर खावा।
शेखरचंद्र कृपालु शशि प्रभु मस्तक चमकावा।
गल मुण्डन की माला सुशोभित सुन्दर दरसावा। ॐ।।
नमो-नमो आनंद कंद प्रभु लट गत मठ झावा।
कर्ष तुण्ड शिव कपिल त्रयम्बक यश जग में छावा।
जो जन तुमसे लगावत संकट नहिं पावा।
छीतरमल जब शरण तुम्हारी आरती प्रभु गावा।
ॐ जै-जै भैरवबाबा स्वामी जै भैरवबाबा।
 श्री भैरव तांण्डव स्तोत्र


।। अथ भैरव तांण्डव स्तोत्र ।।
ॐ चण्डं प्रतिचण्डं करधृतदण्डं कृतरिपुखण्डं सौख्यकरम् ।
लोकं सुखयन्तं विलसितवन्तं प्रकटितदन्तं नृत्यकरम् ।। 
डमरुध्वनिशंखं तरलवतंसं मधुरहसन्तं लोकभरम् । 
भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम् ।।
चर्चित सिन्दूरं रणभूविदूरं दुष्टविदूरं श्रीनिकरम् ।
किँकिणिगणरावं त्रिभुवनपावं खर्प्परसावं पुण्यभरम् ।।
करुणामयवेशं सकलसुरेशं मुक्तशुकेशं पापहरम् । 
भज भज भूतेशं प्रकट महेशं श्री भैरववेषं कष्टहरम् ।।
कलिमल संहारं मदनविहारं फणिपतिहारं शीध्रकरम् ।
कलुषंशमयन्तं परिभृतसन्तं मत्तदृगृन्तं शुद्धतरम् ।।
गतिनिन्दितहेशं नरतनदेशं स्वच्छकशं सन्मुण्डकरम् ।
भज भज भूतेशं प्रकट महेशं श्रीभैरववेशं कष्टहरम् ।।
कठिन स्तनकुंभं सुकृत सुलभं कालीडिँभं खड्गधरम् ।
वृतभूतपिशाचं स्फुटमृदुवाचं स्निग्धसुकाचं भक्तभरम् ।।
तनुभाजितशेषं विलमसुदेशं कष्टसुरेशं प्रीतिनरम् ।
भज भज भूतेशं प्रकट महेशं श्रीभैरववेशं कष्टहरम् ।।
ललिताननचंद्रं सुमनवितन्द्रं बोधितमन्द्रं श्रेष्ठवरम् ।
सुखिताखिललोकं परिगतशोकं शुद्धविलोकं पुष्टिकरम् ।।
वरदाभयहारं तरलिततारं क्ष्युद्रविदारं तुष्टिकरम् ।
भज भज भूतेशं प्रकट महेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ।।
सकलायुधभारं विजनविहारं सुश्रविशारं भृष्टमलम् ।
शरणागतपालं मृगमदभालं संजितकालं स्वेष्टबलम् ।।
पदनूपूरसिंजं त्रिनयनकंजं गुणिजनरंजन कुष्टहरम् ।
भज भज भूतेशं प्रकट महेशं श्री भैरव वेषं कष्टहरम् ।।
मदयिँतुसरावं प्रकटितभावं विश्वसुभावं ज्ञानपदम् ।
रक्तांशुकजोषं परिकृततोषं नाशितदोषं सन्मंतिदमम् ।।
कुटिलभ्रकुटीकं ज्वरधननीकं विसरंधीकं प्रेमभरम् ।
भज भज भूतेशं प्रकट महेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ।।
परिर्निजतकामं विलसितवामं योगिजनाभं योगेशम् ।
बहुमधपनाथं गीतसुगाथं कष्टसुनाथं वीरेशम् । 
कलयं तमशेषं भृतजनदेशं नृत्य सुरेशं वीरेशम् ।
भज भज भूतेशं प्रकट महेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ।। 
ॐ।। श्री भैरव तांण्डव स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ।।ॐ 
 श्री स्वर्णाकर्षण भैरव स्तोत्रम्


।। श्री मार्कण्डेय उवाच ।।
भगवन् ! प्रमथाधीश ! शिव-तुल्य-पराक्रम !
पूर्वमुक्तस्त्वया मन्त्रं, भैरवस्य महात्मनः ।।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि, तस्य स्तोत्रमनुत्तमं ।
तत् केनोक्तं पुरा स्तोत्रं, पठनात्तस्य किं फलम् ।।
तत् सर्वं श्रोतुमिच्छामि, ब्रूहि मे नन्दिकेश्वर !।।
।। श्री नन्दिकेश्वर उवाच ।।
इदं ब्रह्मन् ! महा-भाग, लोकानामुपकारक !
स्तोत्रं वटुक-नाथस्य, दुर्लभं भुवन-त्रये ।।
सर्व-पाप-प्रशमनं, सर्व-सम्पत्ति-दायकम् ।
दारिद्र्य-शमनं पुंसामापदा-भय-हारकम् ।।
अष्टैश्वर्य-प्रदं नृणां, पराजय-विनाशनम् ।
महा-कान्ति-प्रदं चैव, सोम-सौन्दर्य-दायकम् ।।
महा-कीर्ति-प्रदं स्तोत्रं, भैरवस्य महात्मनः ।
न वक्तव्यं निराचारे, हि पुत्राय च सर्वथा ।।
शुचये गुरु-भक्ताय, शुचयेऽपि तपस्विने ।
महा-भैरव-भक्ताय, सेविते निर्धनाय च ।।
निज-भक्ताय वक्तव्यमन्यथा शापमाप्नुयात् ।
स्तोत्रमेतत् भैरवस्य, ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मनः ।।
श्रृणुष्व ब्रूहितो ब्रह्मन् ! सर्व-काम-प्रदायकम् ।।
विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीस्वर्णाकर्षण-भैरव-स्तोत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीस्वर्णाकर्षण-भैरव-देवता, ह्रीं बीजं, क्लीं शक्ति, सः कीलकम्, मम-सर्व-काम-सिद्धयर्थे पाठे विनियोगः ।
ध्यानः-
मन्दार-द्रुम-मूल-भाजि विजिते रत्नासने संस्थिते ।
दिव्यं चारुण-चञ्चुकाधर-रुचा देव्या कृतालिंगनः ।।
भक्तेभ्यः कर-रत्न-पात्र-भरितं स्वर्ण दधानो भृशम् ।
स्वर्णाकर्षण-भैरवो भवतु मे स्वर्गापवर्ग-प्रदः ।।
।। स्तोत्र-पाठ ।।
ॐ नमस्तेऽस्तु भैरवाय, ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मने,
नमः त्रैलोक्य-वन्द्याय, वरदाय परात्मने ।।
रत्न-सिंहासनस्थाय, दिव्याभरण-शोभिने ।
नमस्तेऽनेक-हस्ताय, ह्यनेक-शिरसे नमः ।
नमस्तेऽनेक-नेत्राय, ह्यनेक-विभवे नमः ।।
नमस्तेऽनेक-कण्ठाय, ह्यनेकान्ताय ते नमः ।
नमोस्त्वनेकैश्वर्याय, ह्यनेक-दिव्य-तेजसे ।।
अनेकायुध-युक्ताय, ह्यनेक-सुर-सेविने ।
अनेक-गुण-युक्ताय, महा-देवाय ते नमः ।।
नमो दारिद्रय-कालाय, महा-सम्पत्-प्रदायिने ।
श्रीभैरवी-प्रयुक्ताय, त्रिलोकेशाय ते नमः ।।
दिगम्बर ! नमस्तुभ्यं, दिगीशाय नमो नमः ।
नमोऽस्तु दैत्य-कालाय, पाप-कालाय ते नमः ।।
सर्वज्ञाय नमस्तुभ्यं, नमस्ते दिव्य-चक्षुषे ।
अजिताय नमस्तुभ्यं, जितामित्राय ते नमः ।।
नमस्ते रुद्र-पुत्राय, गण-नाथाय ते नमः ।
नमस्ते वीर-वीराय, महा-वीराय ते नमः ।।
नमोऽस्त्वनन्त-वीर्याय, महा-घोराय ते नमः ।
नमस्ते घोर-घोराय, विश्व-घोराय ते नमः ।।
नमः उग्राय शान्ताय, भक्तेभ्यः शान्ति-दायिने ।
गुरवे सर्व-लोकानां, नमः प्रणव-रुपिणे ।।
नमस्ते वाग्-भवाख्याय, दीर्घ-कामाय ते नमः ।
नमस्ते काम-राजाय, योषित्कामाय ते नमः ।।
दीर्घ-माया-स्वरुपाय, महा-माया-पते नमः ।
सृष्टि-माया-स्वरुपाय, विसर्गाय सम्यायिने ।।
रुद्र-लोकेश-पूज्याय, ह्यापदुद्धारणाय च ।
नमोऽजामल-बद्धाय, सुवर्णाकर्षणाय ते ।।
नमो नमो भैरवाय, महा-दारिद्रय-नाशिने ।
उन्मूलन-कर्मठाय, ह्यलक्ष्म्या सर्वदा नमः ।।
नमो लोक-त्रेशाय, स्वानन्द-निहिताय ते ।
नमः श्रीबीज-रुपाय, सर्व-काम-प्रदायिने ।।
नमो महा-भैरवाय, श्रीरुपाय नमो नमः ।
धनाध्यक्ष ! नमस्तुभ्यं, शरण्याय नमो नमः ।।
नमः प्रसन्न-रुपाय, ह्यादि-देवाय ते नमः ।
नमस्ते मन्त्र-रुपाय, नमस्ते रत्न-रुपिणे ।।
नमस्ते स्वर्ण-रुपाय, सुवर्णाय नमो नमः ।
नमः सुवर्ण-वर्णा य, महा-पुण्याय ते नमः ।।
नमः शुद्धाय बुद्धाय, नमः संसार-तारिणे ।
नमो देवाय गुह्याय, प्रबलाय नमो नमः ।।
नमस्ते बल-रुपाय, परेषां बल-नाशिने ।
नमस्ते स्वर्ग-संस्थाय, नमो भूर्लोक-वासिने ।।
नमः पाताल-वासाय, निराधाराय ते नमः ।
नमो नमः स्वतन्त्राय, ह्यनन्ताय नमो नमः ।।
द्वि-भुजाय नमस्तुभ्यं, भुज-त्रय-सुशोभिने ।
नमोऽणिमादि-सिद्धाय, स्वर्ण-हस्ताय ते नमः ।।
पूर्ण-चन्द्र-प्रतीकाश-वदनाम्भोज-शोभिने ।
नमस्ते स्वर्ण-रुपाय, स्वर्णालंकार-शोभिने ।।
नमः स्वर्णाकर्षणाय, स्वर्णाभाय च ते नमः ।
नमस्ते स्वर्ण-कण्ठाय, स्वर्णालंकार-धारिणे ।।
स्वर्ण-सिंहासनस्थाय, स्वर्ण-पादाय ते नमः ।
नमः स्वर्णाभ-पाराय, स्वर्ण-काञ्ची-सुशोभिने ।।
नमस्ते स्वर्ण-जंघाय, भक्त-काम-दुघात्मने ।
नमस्ते स्वर्ण-भक्तानां, कल्प-वृक्ष-स्वरुपिणे ।।
चिन्तामणि-स्वरुपाय, नमो ब्रह्मादि-सेविने ।
कल्पद्रुमाधः-संस्थाय, बहु-स्वर्ण-प्रदायिने ।।
भय-कालाय भक्तेभ्यः, सर्वाभीष्ट-प्रदायिने ।
नमो हेमादि-कर्षाय, भैरवाय नमो नमः ।।
स्तवेनानेन सन्तुष्टो, भव लोकेश-भैरव !
पश्य मां करुणाविष्ट, शरणागत-वत्सल !
श्रीभैरव धनाध्यक्ष, शरणं त्वां भजाम्यहम् ।
प्रसीद सकलान् कामान्, प्रयच्छ मम सर्वदा ।।
।। फल-श्रुति ।।
श्रीमहा-भैरवस्येदं, स्तोत्र सूक्तं सु-दुर्लभम् ।
मन्त्रात्मकं महा-पुण्यं, सर्वैश्वर्य-प्रदायकम् ।।
यः पठेन्नित्यमेकाग्रं, पातकैः स विमुच्यते ।
लभते चामला-लक्ष्मीमष्टैश्वर्यमवाप्नुयात् ।।
चिन्तामणिमवाप्नोति, धेनुं कल्पतरुं ध्रुवम् ।
स्वर्ण-राशिमवाप्नोति, सिद्धिमेव स मानवः ।।
संध्याय यः पठेत्स्तोत्र, दशावृत्त्या नरोत्तमैः ।
स्वप्ने श्रीभैरवस्तस्य, साक्षाद् भूतो जगद्-गुरुः ।
स्वर्ण-राशि ददात्येव, तत्क्षणान्नास्ति संशयः ।
सर्वदा यः पठेत् स्तोत्रं, भैरवस्य महात्मनः ।।
लोक-त्रयं वशी कुर्यात्, अचलां श्रियं चाप्नुयात् ।
न भयं लभते क्वापि, विघ्न-भूतादि-सम्भव ।।
म्रियन्ते शत्रवोऽवश्यम लक्ष्मी-नाशमाप्नुयात् ।
अक्षयं लभते सौख्यं, सर्वदा मानवोत्तमः ।।
अष्ट-पञ्चाशताणढ्यो, मन्त्र-राजः प्रकीर्तितः ।
दारिद्र्य-दुःख-शमनं, स्वर्णाकर्षण-कारकः ।।
य येन संजपेत् धीमान्, स्तोत्र वा प्रपठेत् सदा ।
महा-भैरव-सायुज्यं, स्वान्त-काले भवेद् ध्रुवं ।।
मूल-मन्त्रः-
“ॐ ऐं क्लां क्लीं क्लूं ह्रां ह्रीं ह्रूं सः वं आपदुद्धारणाय अजामल-बद्धाय लोकेश्वराय स्वर्णाकर्षण-भैरवाय मम दारिद्र्य-विद्वेषणाय श्रीं महा-भैरवाय नमः ।
 श्री नाकोडा भैरव चालीसा


दोहा
पार्श्वनाथ भगवान की, मूरत चित् बसाए
भैरव चालीसा लिखू, गाता मन हरसाए
श्री नाकोडा भैरव सुखकारी, गूं गाती है दुनिया सारी
भैरव की महिमा अति भारी, भैरव का नाम जपे नर नारी
जिनवर के है आज्ञाकारी, श्रद्धा रखते संकित धारी
प्रात: उठे जो भेरू ध्याता, रिद्धि सिद्धि सब सम्पद पाता
भेरू नाम जपे जो कोई, उस घर मैं नित् मंगल होई
नाकोडा लाखो नर आवे, श्रद्धा से प्रसाद चडावे
भैरव भैरव आन पुकारे, भक्तो के सब कष्ठ निवारे
भैरव दर्शन शक्तिशाली, दर से कोई न जावे खाली
जो नर निथ उठ तुमको ध्यावे, भूत पास आने नहीं पावे
डाकन छु मंतर होजावे, दुष्ट देव आडे नहीं आवे
मारवाड की दिव्य मणि है, हम सब के तो आप धनि है
कल्पतरु है पर्तिख भेरू, इच्छित देता सब को भेरू
अधि व्याधि सब दोष मिटावे, सुमिरत भेरू शांति पावे
बाहर पर्देसे जावे नर, नाम मंत्र भेरू का लेकर
चोगडिया दूषण मिट जावे, काल राहू सब नाठा जावे
परदेशो मैं नाम कमावे, मन वांछित धन सम्पद पावे
तन मैं साथा मन मैं साथा, जो भेरू को नित्य मनाता
डूंगर वासी काला भैरव, सुख कारक है गोरा भैरव
जो नर भक्ति से गुण गावें, दिव्य रत्न सुख मंगल पावे
श्रद्धा से जो शीश झुकावे, भेरू अमृत रस बरसावे
मिलजुल सब नर फेरे माला, पीते सब अमृत का प्याला
मेघ झरे जो झरते निर्झर, खुशाली चावे धरती पर
अन्न सम्पदा भर भर पावे, चारो और सुकाल बनावे
भेरू है सचा रखवाला, दुश्मन मित्र बनाने वाला
देश देश मैं भेरू गांजे , खूंट खूंट मैं डंका बाजे
है नहीं अपना जिनके कोई, भेरू सहायक उनके होई
नाभि केंद्रे से तुम्हे बुलावे, भेरू झट पट दौड़े आवे
भूके नर की भूक मिटावे, प्यासे नर को निर् पिलावे
इधर उधर अब नहीं भटकना, भेरू के नित पाँव पकड़ना
वंचित सम्पद आन मिलेगी, सुख की कालिया नित्य खिलेगी
भेरू गन खरतर के देवा, सेवा से पाते नर मेवा
किर्तिरत्न की आज्ञा पाते, हुक्म हाजिरी सदा बजाते
ओं ह्रीं भैरव बम बम भैरव, कष्ट निवारक भोला भैरव
नैन मुंध धुन रात लगावे, सपने मैं वो दर्शन पावे
प्रश्नो के उत्तर झट मिलते, रास्ते के कनकट सब मिटते
नाकोडा भेरू नित् ध्यावो, संकट मेटों मंगल पावो
भेरू जपंता मालन माला, बुझ जाती दुखो की ज्वाला
निथ उठ जो चालीसा गावे, धन सुत से घर स्वर्ग बनावे
दोहा
भेरू चालीसा पढ़े मन में श्रद्धा धार
कष्ट कटे महिमा बढे सम्पद होत अपार
जिन कांति सूरी गुरु राज के शिष्य मणिप्रभराय
भैरव के सानिध्य में यह चालीसा गाये

 Beej Mantras




Om: ॐ


This beej mantra is the mystic name for the Hindu Trimurti, and represents the union of the three gods, viz. ‘A’ for Brahma, ‘U’ for Vishnu and ‘M’ for Mahadev Shiva. The three sounds also symbolize the three Vedas (Rigveda, Samaveda, Yajurveda).


Kreem:  क्रीं


This is Goddess Kali beej mantra. Kali Mata gives us health, strength, all round success and protects from evil powers. This mantra creates a strong base for Kali Mahavidya Sadhana. In this mantra ‘ Ka ' is Maa Kali , ‘ Ra ' is Brahman, and ‘ ee ' is Mahamaya. ‘ Nada ' is the Mother of the Universe, and bindu is the dispeller of sorrow.


Shreem:  श्रीं


This is the beej mantra for Goddess Mahalaxmi. It is recited for wealth, material gains, success in business or profession, elimination of ailments & worries, protection, getting beautiful wife, happy married life and all round success.  ‘ Sha ' is Maha Lakshmi, ‘ Ra ' means wealth. ‘ Ee ' is satisfaction or contentment. Nada is the manifested Brahman, and bindu is the dispeller of sorrow.


Hroum:  ह्रौं


This is the beej mantra for Lord Shiva. Lord Shiva protects from sudden death, fatal diseases, gives immortality, moksha and all round success if a person recites it with devotion along with the mantras of Shiva.


Doom:  दुं


This is the beej Mantra of Maa Durga . It is recited for power, strength,protection, health, wealth, victory, wisdom, knowledge, elimination of enemies & grave problems, happy married life and all round success. ‘ Da ' means Durga, and ‘ U ' means to protect. Nada means Mother of the universe, and bindu signifies worship.


Hreem: ह्रीं


This is the Mantra of Mahamaya or Bhuvaneshwari. The best and the most powerful make a person leader of men and help get a person all he needs. ‘ Ha ' means Shiva, ‘ Ra ' is prakriti, ‘ ee ' means Mahamaya. Nada is the Mother of the Universe, and bindu is the dispeller of sorrow.


Ayeim: ऐं


This is the beej Mantra of Devi Saraswati. Goddess Saraswati is the goddess of knowledge of all fields and with the recitation of this mantra one can attain knowledge, wisdom and success in any field.  ‘ Ai ' stands for Saraswati, and bindu is the dispeller of sorrow.


Gam: गं


This is the  beej mantra of Lord Ganapati. Lord Ganesha gives His devotees knowledge, wisdom, protection, fortune, happiness, health, wealth and eliminate all obstacles. ‘ Ga ' means Ganesha, and bindu is the dispeller of sorrow.


Fraum: फ्रौं


This is the beej mantra for Lord Hanuman. Chanting of it gives unlimited strength, power, protection, wisdom, happiness, elimination of bad spirits & ghosts, victory over enemies and all round success.


Dam: दं


This is beej mantra for Lord Vishnu. With recitation of it a person gets wealth, health, protection, happy married life, happiness, victory and all round success.


Bhram: भ्रं


This is the beej mantra of Lord Bhairav. It is recited for strength, protection, victory, health, wealth, happiness, fame, success in court cases, elimination of enemies, and all round success.


Dhoom: धूं


This is the beej mantra for Goddess Dhoomavati. Chanting of this mantra gives quick eradication of all enemies, strength, fortune, protection, health, wealth and all round success.


Hleem: हलीं


This is the beej mantra for Goddess Bagalamukhi. It is recited for quick elimination of all enemies, power, victory, fame, and all round success.


Treem : त्रीं


This is the beej mantra for Goddess Tara. Recitation of this mantra gives unending financial gain, unlimited wealth, fortune, fame, happiness, victory and all round success.


Kshraum: क्ष्रौं


This is a beej mantra of Lord Narsimha. Lord Narsimha removes humans all sorrows and fears and bring quick victory over enemies.  This also creates a strong base for other Narsimha sadhanas.


Dhham: धं


This is the beej mantra of Lord Kuber. It is recited for massive monetary gain, wealth, fortune and all round success.


Ham: हं


This beej mantra is receited for awakening of Kundalini. It is chanted for activating the Akash Tatva (space element) in us which gets us siddhis and eliminates ailments related to this element.


Ram: रां


This beej mantra is related to Agni Tatva (fire element). Chanting of this mantra activates the Agni Tatva and eliminates ailments related to this element. It is helpful for quicker awakening of Kundalini.


Yam: यं


This beej mantra is related to Vayu Tatva (air element). Chanting of this mantra activates the Vayu Tatva and eliminates ailments related to this element. Activation of all elements leads to quicker awakening of Kundalini


Ksham: क्षं


This is related to the Prithvi Tatva (earth element) in us which gets us siddhis and eliminates ailments related to this element. Activation of all elements leads to quicker awakening of Kundalini and enables a sadhak to access all supernatural powers.


Tam: तं


This beej mantra is for getting rid of disease, worry, fear and illusions.

 श्री अन्नपूर्णा स्तोत्रम्



नित्यानन्दकरी वराभयकरी सौन्दर्यरत्नाकरी
निर्धूताखिलघोरपावनकरी प्रत्यक्षमाहेश्वरी ।
प्रालेयाचलवंशपावनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥१॥
नानारत्नविचित्रभूषणकरी हेमाम्बराडम्बरी
मुक्ताहारविलम्बमानविलसद्वक्षोजकुम्भान्तरी ।
काश्मीरागरुवासिताङ्गरुचिरे काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥२॥
योगानन्दकरी रिपुक्षयकरी धर्मार्थनिष्ठाकरी
चन्द्रार्कानलभासमानलहरी त्रैलोक्यरक्षाकरी ।
सर्वैश्वर्यसमस्तवाञ्छितकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥३॥
कैलासाचलकन्दरालयकरी गौरी उमा शङ्करी
कौमारी निगमार्थगोचरकरी ओङ्कारबीजाक्षरी ।
मोक्षद्वारकपाटपाटनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥४॥
दृश्यादृश्यविभूतिवाहनकरी ब्रह्माण्डभाण्डोदरी
लीलानाटकसूत्रभेदनकरी विज्ञानदीपाङ्कुरी ।
श्रीविश्वेशमनःप्रसादनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥५॥
उर्वीसर्वजनेश्वरी भगवती मातान्नपूर्णेश्वरी
वेणीनीलसमानकुन्तलहरी नित्यान्नदानेश्वरी ।
सर्वानन्दकरी सदा शुभकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥६॥
आदिक्षान्तसमस्तवर्णनकरी शम्भोस्त्रिभावाकरी
काश्मीरात्रिजलेश्वरी त्रिलहरी नित्याङ्कुरा शर्वरी ।
कामाकाङ्क्षकरी जनोदयकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥७॥
देवी सर्वविचित्ररत्नरचिता दाक्षायणी सुन्दरी
वामं स्वादुपयोधरप्रियकरी सौभाग्यमाहेश्वरी ।
भक्ताभीष्टकरी सदा शुभकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥८॥
चन्द्रार्कानलकोटिकोटिसदृशा चन्द्रांशुबिम्बाधरी
चन्द्रार्काग्निसमानकुन्तलधरी चन्द्रार्कवर्णेश्वरी ।
मालापुस्तकपाशासाङ्कुशधरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥९॥
क्षत्रत्राणकरी महाऽभयकरी माता कृपासागरी
साक्षान्मोक्षकरी सदा शिवकरी विश्वेश्वरश्रीधरी ।
दक्षाक्रन्दकरी निरामयकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥१०॥
अन्नपूर्णे सदापूर्णे शङ्करप्राणवल्लभे ।
ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति ॥११॥
माता च पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः ।
बान्धवाः शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम् ॥१२॥
 श्री रामाष्टकम्



(श्री व्यासविरचितम्)
भजे विशेषसुन्दरं समस्तपापखण्डनम् ।
स्वभक्तचित्तरञ्जनं सदैव राममद्वयम् ॥ १ ॥
जटाकलापशोभितं समस्तपापनाशकं ।
स्वभक्तभीतिभञ्जनं भजे ह राममद्वयम् ॥ २ ॥
निजस्वरूपबोधकं कृपाकरं भवापहम् ।
समं शिवं निरञ्जनं भजे ह राममद्वयम् ॥ ३ ॥
सहप्रपञ्चकल्पितं ह्यनामरूपवास्तवम् ।
निराकृतिं निरामयं भजे ह राममद्वयम् ॥ ४ ॥
निष्प्रपञ्चनिर्विकल्पनिर्मलं निरामयम् ।
चिदेकरूपसन्ततं भजे ह राममद्वयम् ॥ ५ ॥
भवाब्धिपोतरूपकं ह्यशेषदेहकल्पितम् ।
गुणाकरं कृपाकरं भजे ह राममद्वयम् ॥ ६ ॥
महावाक्यबोधकैर्विराजमानवाक्पदैः ।
परं ब्रह्मसद्व्यापकं भजे ह राममद्वयम् ॥ ७ ॥
शिवप्रदं सुखप्रदं भवच्छिदं भ्रमापहम् ।
विराजमानदेशिकं भजे ह राममद्वयम् ॥ ८ ॥
रामाष्टकं पठति यस्सुखदं सुपुण्यं
व्यासेन भाषितमिदं शृणुते मनुष्यः
विद्यां श्रियं विपुलसौख्यमनन्तकीर्तिं
संप्राप्य देहविलये लभते च मोक्षम् ॥ ९ ॥
॥ इति श्रीव्यासविरचितं रामाष्टकं संपूर्णम् ॥
 श्री सूर्यमण्डलाष्टक स्तोत्रम्  


नमः सवित्रे जगदेकचक्षुषे जगत्प्रसूतिस्थितिनाश हेतवे । 
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे विरञ्चि नारायण शंकरात्मने ॥ १ ॥ 
यन्मडलं दीप्तिकरं विशालं रत्नप्रभं तीव्रमनादिरुपम् । 
दारिद्र्यदुःखक्षयकारणं च पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥ २ ॥ 
यन्मण्डलं देवगणै: सुपूजितं विप्रैः स्तुत्यं भावमुक्तिकोविदम् । 
तं देवदेवं प्रणमामि सूर्यं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥ ३ ॥ 
यन्मण्डलं ज्ञानघनं, त्वगम्यं, त्रैलोक्यपूज्यं, त्रिगुणात्मरुपम् । 
समस्ततेजोमयदिव्यरुपं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥ ४ ॥ 
यन्मडलं गूढमतिप्रबोधं धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानाम् । 
यत्सर्वपापक्षयकारणं च पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥ ५ ॥ 
यन्मडलं व्याधिविनाशदक्षं यदृग्यजु: सामसु सम्प्रगीतम् । 
प्रकाशितं येन च भुर्भुव: स्व: पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥ ६ ॥ 
यन्मडलं वेदविदो वदन्ति गायन्ति यच्चारणसिद्धसंघाः । 
यद्योगितो योगजुषां च संघाः पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥ ७ ॥ 
यन्मडलं सर्वजनेषु पूजितं ज्योतिश्च कुर्यादिह मर्त्यलोके । 
यत्कालकल्पक्षयकारणं च पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥ ८ ॥ 
यन्मडलं विश्वसृजां प्रसिद्धमुत्पत्तिरक्षाप्रलयप्रगल्भम् । 
यस्मिन् जगत् संहरतेऽखिलं च पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥ ९ ॥ 
यन्मडलं सर्वगतस्य विष्णोरात्मा परं धाम विशुद्ध तत्त्वम् । 
सूक्ष्मान्तरैर्योगपथानुगम्यं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥ १० ॥ 
यन्मडलं वेदविदि वदन्ति गायन्ति यच्चारणसिद्धसंघाः । 
यन्मण्डलं वेदविदः स्मरन्ति पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥ ११ ॥ 
यन्मडलं वेदविदोपगीतं यद्योगिनां योगपथानुगम्यम् । 
तत्सर्ववेदं प्रणमामि सूर्य पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥ १२ ॥ 
मण्डलात्मकमिदं पुण्यं यः पठेत् सततं नरः । 
सर्वपापविशुद्धात्मा सूर्यलोके महीयते ॥ १३ ॥ 
॥ इति श्रीमदादित्यहृदये मण्डलात्मकं स्तोत्रं संपूर्णम् ॥
 श्रीपांडुरंगाष्टकम् 



महायोगपीठे तटे भीमरथ्या वरं पुंडरीकाय दातुं मुनीद्रैः । 
समागत्य तिष्टंतमानंदकदं परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ १ ॥ 
तडिद्वाससं नीलमेघावभासं रमामंदिरं सुंदरं चित्प्रकाशम् । 
वरं त्विष्टिकायां समन्यस्तपादं परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ २ ॥ 
प्रमाणं भवाब्धेरिदं मामकानां नितंबः कराभ्यां धृतो येन तस्मात् । 
विधातुर्वसत्यै धृतो नाभिकोशः परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ ३ ॥ 
स्फुरत्कौस्तुभालंकृतं कंठदेशे श्रिया जुष्टकेयूरकं श्रीनिवासम् । 
शिवं शान्तमीड्यं वरं लोकपालं परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ ४ ॥ 
शरचंद्रबिबाननं चारुहासं लसत्कुंडलक्रान्तगंडस्थलांगम् । 
जपारागबिंबाधरं कंजनेत्रम् परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ ५ ॥ 
किरीटोज्ज्वलत्सर्वदिक् प्रान्तभागं सुरैरर्चितं दिव्यरत्नैरमर्घ्यैः । 
त्रिभंगाकृतिं बर्हमाल्यावतंसं परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ ६ ॥ 
विभुं वेणुनादं चरन्तं दुरन्तं स्वयं लीलया गोपवेषं दधानम् । 
गवां वृंदकानन्दनं चारुहासं परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ ७ ॥ 
अजं रुक्मिणीप्राणसंजीवनं तं परं धाम कैवल्यमेकं तुरीयम् । 
प्रसन्नं प्रपन्नार्तिहं देवदेवं परब्रह्मलिंगं भजे पांडुरंगं ॥ ८ ॥ 
स्तवं पांडुरंगस्य वै पुण्यदं ये पठन्त्येकचित्तेन भक्त्या च नित्यम् । 
भवांबोनिधिं तेऽपि तीर्त्वाऽन्तकाले हरेरालयं शाश्र्वतं प्राप्नुवन्ति ॥ ९ ॥ 
॥ इति श्री परम पूज्य शंकराचार्यविरचितं श्रीपांडुरंगाष्टकं संपूर्णं ॥ 
 ॥ श्री महालक्ष्म्यष्टकम् ॥


श्री गणेशाय नमः
नमस्तेस्तू महामाये श्रीपिठे सूरपुजिते ।
शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ १ ॥
नमस्ते गरूडारूढे कोलासूर भयंकरी ।
सर्व पाप हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ २ ॥
सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्ट भयंकरी ।
सर्व दुःख हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥३ ॥
सिद्धीबुद्धूीप्रदे देवी भुक्तिमुक्ति प्रदायिनी ।
मंत्रमूर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ ४ ॥
आद्यंतरहिते देवी आद्यशक्ती महेश्वरी ।
योगजे योगसंभूते महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ ५ ॥
स्थूल सूक्ष्म महारौद्रे महाशक्ती महोदरे ।
महापाप हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ ६ ॥
पद्मासनस्थिते देवी परब्रम्हस्वरूपिणी ।
परमेशि जगन्मातर्र महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ ७ ॥
श्वेतांबरधरे देवी नानालंकार भूषिते ।
जगत्स्थिते जगन्मार्त महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ ८ ॥
महालक्ष्म्यष्टकस्तोत्रं यः पठेत् भक्तिमान्नरः ।
सर्वसिद्धीमवाप्नोति राज्यं प्राप्नोति सर्वदा ॥ ९ ॥
एककाले पठेन्नित्यं महापापविनाशनं ।
द्विकालं यः पठेन्नित्यं धनधान्य समन्वितः ॥१०॥
त्रिकालं यः पठेन्नित्यं महाशत्रूविनाशनं ।
महालक्ष्मीर्भवेन्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा ॥११॥
॥इतिंद्रकृत श्रीमहालक्ष्म्यष्टकस्तवः संपूर्णः ॥
 काल भैरव अष्टक


देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम् ।
नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ १॥
भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम् ।
कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ २॥
शूलटंकपाशदण्डपाणिमादिकारणं श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम् ।
भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ३॥
भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम् ।
विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥ ४॥
धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशनं कर्मपाशमोचकं सुशर्मधायकं विभुम् ।
स्वर्णवर्णशेषपाशशोभितांगमण्डलं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ५॥
रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरंजनम् ।
मृत्युदर्पनाशनं करालदंष्ट्रमोक्षणं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ६॥
अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसंततिं दृष्टिपात्तनष्टपापजालमुग्रशासनम् ।
अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ७॥
भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायकं काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम् ।
नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ८॥
॥ फल श्रुति॥
कालभैरवाष्टकं पठंति ये मनोहरं ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम् ।
शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिं नरा ध्रुवम् ॥
॥इति कालभैरवाष्टकम् संपूर्णम् ॥
 श्रीविश्वनाथाष्टकम्


गङ्गा तरङ्ग रमणीय जटा कलापं
गौरी निरन्तर विभूषित वाम भागं
नारायण प्रियमनङ्ग मदापहारं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् (१)
वाचामगोचरमनेक गुण स्वरूपं
वागीश विष्णु सुर सेवित पाद पद्मं
वामेण विग्रह वरेन कलत्रवन्तं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् (२)
भूतादिपं भुजग भूषण भूषिताङ्गं
व्याघ्राञ्जिनां बरधरं, जटिलं, त्रिनेत्रं
पाशाङ्कुशाभय वरप्रद शूलपाणिं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् (३)
सीतांशु शोभित किरीट विराजमानं
बालेक्षणातल विशोषित पञ्चबाणं
नागाधिपा रचित बासुर कर्ण पूरं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् (४)
पञ्चाननं दुरित मत्त मतङ्गजानां
नागान्तकं धनुज पुङ्गव पन्नागानां
दावानलं मरण शोक जराटवीनां
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् (५)
तेजोमयं सगुण निर्गुणमद्वितीयं
आनन्द कन्दमपराजित मप्रमेयं
नागात्मकं सकल निष्कलमात्म रूपं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् (६)
आशां विहाय परिहृत्य परश्य निन्दां
पापे रथिं च सुनिवार्य मनस्समाधौ
आधाय हृत्-कमल मध्य गतं परेशं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् (७)
रागाधि दोष रहितं स्वजनानुरागं
वैराग्य शान्ति निलयं गिरिजा सहायं
माधुर्य धैर्य सुभगं गरलाभिरामं
वाराणसी पुरपतिं भज विश्वनाधम् (८)
वाराणसी पुर पते स्थवनं शिवस्य
व्याख्यातम् अष्टकमिदं पठते मनुष्य
विद्यां श्रियं विपुल सौख्यमनन्त कीर्तिं
सम्प्राप्य देव निलये लभते च मोक्षम् ॥
विश्वनाधाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेः शिव सन्निधौ
शिवलोकमवाप्नोति शिवेनसह मोदते ॥
 श्री दुर्गा आपदुद्धाराष्टकम्



नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकम्पे नमस्ते जगद्व्यापिके विश्वरूपे |
नमस्ते जगद्वन्द्यपादारविन्दे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||१||
नमस्ते जगच्चिन्त्यमानस्वरूपे नमस्ते महायोगिविज्ञानरूपे |
नमस्ते नमस्ते सदानन्द रूपे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||२||
अनाथस्य दीनस्य तृष्णातुरस्य भयार्तस्य भीतस्य बद्धस्य जन्तोः |
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारकर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||३||
अरण्ये रणे दारुणे शुत्रुमध्ये जले सङ्कटे राजग्रेहे प्रवाते |
त्वमेका गतिर्देवि निस्तार हेतुर्नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||४||
अपारे महदुस्तरेऽत्यन्तघोरे विपत् सागरे मज्जतां देहभाजाम् |
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारनौका नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||५||
नमश्चण्डिके चण्डोर्दण्डलीलासमुत्खण्डिता खण्डलाशेषशत्रोः |
त्वमेका गतिर्विघ्नसन्दोहहर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||६||
त्वमेका सदाराधिता सत्यवादिन्यनेकाखिला क्रोधना क्रोधनिष्ठा |
इडा पिङ्गला त्वं सुषुम्ना च नाडी नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||७||
नमो देवि दुर्गे शिवे भीमनादे सरस्वत्यरुन्धत्यमोघस्वरूपे  |
विभूतिः सतां कालरात्रिस्वरूपे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||८||
शरणमसि सुराणां सिद्धविद्याधराणां मुनिदनुजवराणां व्याधिभिः पीडितानाम् |
नृपतिगृहगतानां दस्युभिस्त्रासितानां त्वमसि शरणमेका देवि दुर्गे प्रसीद ||९||
|| इति सिद्धेश्वरतन्त्रे हरगौरीसंवादे आपदुद्धाराष्टकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ||
 श्री गणेश मंगलाष्टकम



गजाननाय गांगेय सहजाय सर्दात्मने!
गौरी प्रियतनूजाय गणेषयास्तु मंगलम!!१!!
नागयज्ञोपवीताय नतविध्न विनाशिने!
नन्द्यादिगणनाथाय नायाकायास्तु मंगलम!!२!!
इभवक्त्राय चंद्रादिवन्दिताय चिदात्मने!
ईशान प्रेमपात्राय चेष्टादायास्तु मंगलम!!३!!
सुमुखाय सुशुन्डाग्रोक्षिप्तामृत घटाय च!
सुखरींदनिवे व्यय सुखदायास्तु मंगलम!!४!!
चतुर्भुजाय चन्द्राय विलसन्मस्तकाय च!
चरणावनतानन्ततारणायास्तु मंगलम!!५!!
वक्रतुण्डाय वटवे वन्धाय वरदाय च!
विरूपाक्षसुतायास्तु विघ्ननाशाय मंगलम!!६!!
प्रमोदामोदरूपाय सिद्धिविज्ञानरुपिणे !
प्रकृष्टपापनाशाय फलदायास्तु मंगलम!!७!!
मंगलं गणनाथाय मंगलं हरसूनवे !
मंगलं विघ्नराजाय विघ्न हत्रेंस्तु मंगलम!!८!!
श्लोकाष्टकमि पुण्यं मंगलप्रदमादरात !
पठितव्यं प्रयत्नेन सर्वविघ्ननिवृत्तये !!९!!
इति श्री गणपति मंगलाष्टकम !!
 श्री हनुमान साठिका


॥दोहा॥
बीर बखानौं पवनसुत,जनत सकल जहान ।
धन्य-धन्य अंजनि-तनय , संकर, हर, हनुमान्॥

।।चौपाइयां।।
जय-जय-जय हनुमान अडंगी | महावीर विक्रम बजरंगी ||
जय कपिश जय पवन कुमारा | जय जग बंदन सील अगारा ||
जय आदित्य अमर अबिकारी | अरि मरदन जय-जय गिरिधारी ||
अंजनी उदर जन्म तुम लीन्हा | जय जयकार देवतन कीन्हा ||
बाजे दुन्दुभि गगन गंभीरा | सुर मन हर्ष असुर मं पीरा ||
कपि के डर गढ़ लंक सकानी | छूटे बंध देवतन जानी ||
ऋषि समूह निकट चलि आये | पवन-तनय के पद सिर नाये ||
बार-बार स्तुति करी नाना | निर्मल नाम धरा हनुमाना ||
सकल ऋषिन मिली अस मत ठाना | दीन्ह बताय लाल फल खाना ||
सुनत वचन कपि मन हर्षाना | रवि रथ उदय लाल फल जाना ||
रथ समेत कपि कीन्ह आहारा | सूर्य बिना भये अति अंधियारा ||
विनय तुम्हार करै अकुलाना | तब कपिस की अस्तुति ठाना ||
सकल लोक वृतांत सुनावा | चतुरानन तब रवि उगिलावा ||
कहा बहोरी सुनहु बलसीला | रामचंद्र करिहैं बहु लीला ||
तब तुम उनकर करेहू सहाई | अबहीं बसहु कानन में जाई ||
अस कही विधि निज लोक सिधारा | मिले सखा संग पवन कुमारा ||
खेलै खेल महा तरु तोरें | ढेर करें बहु पर्वत फोरें ||
जेहि गिरि चरण देहि कपि धाई | गिरि समेत पातालहि जाई ||
कपि सुग्रीव बालि की त्रासा | निरखति रहे राम मागु आसा ||
मिले राम तहं पवन कुमारा | अति आनंद सप्रेम दुलारा ||
मनि मुंदरी रघुपति सों पाई | सीता खोज चले सिरु नाई ||
सतयोजन जलनिधि विस्तारा | अगम-अपार देवतन हारा ||
जिमि सर गोखुर सरिस कपीसा | लांघि गये कपि कही जगदीशा ||
सीता-चरण सीस तिन्ह नाये | अजर-अमर के आसिस पाये ||
रहे दनुज उपवन रखवारी | एक से एक महाभट भारी ||
तिन्हैं मारि पुनि कहेउ कपीसा | दहेउ लंक कोप्यो भुज बीसा ||
सिया बोध दै पुनि फिर आये | रामचंद्र के पद सिर नाये ||
मेरु उपारि आप छीन माहीं | बाँधे सेतु निमिष इक मांहीं ||
लक्ष्मण-शक्ति लागी उर जबहीं | राम बुलाय कहा पुनि तबहीं ||
भवन समेत सुषेन लै आये | तुरत सजीवन को पुनि धाय ||
मग महं कालनेमि कहं मारा | अमित सुभट निसि-चर संहारा ||
आनि संजीवन गिरि समेता | धरि दिन्हौ जहं कृपा निकेता ||
फन पति केर सोक हरि लीन्हा | वर्षि सुमन सुर जय जय कीन्हा ||
अहिरावन हरि अनुज समेता | लै गयो तहां पाताल निकेता ||
जहाँ रहे देवि अस्थाना | दीन चहै बलि कढी कृपाना ||
पवन तनय प्रभु किन गुहारी | कटक समेत निसाचर मारी ||
रीछ किसपति सबै बहोरी | राम-लखन किने यक ठोरी ||
सब देवतन की बन्दी छुडाये | सो किरति मुनि नारद गाये ||
अछय कुमार दनुज बलवाना | काल केतु कहं सब जग जाना ||
कुम्भकरण रावण का भाई | ताहि निपात कीन्ह कपिराई ||
मेघनाद पर शक्ति मारा | पवन तनय तब सो बरियारा ||
रहा तनय नारान्तक जाना | पल में हते ताहि हनुमाना ||
जहं लगि भान दनुज कर पावा | पवन-तनय सब मारि नसावा ||
जय मारुतसुत जय अनुकूला | नाम कृसानु सोक तुला ||
जहं जीवन के संकट होई | रवि तम सम सो संकट खोई ||
बंदी परै सुमिरै हनुमाना | संकट कटे घरै जो ध्याना ||
जाको बंध बामपद दीन्हा | मारुतसुत व्याकुल बहु कीन्हा ||
सो भुजबल का कीन कृपाला | अच्छत तुम्हे मोर यह हाला ||
आरत हरन नाम हनुमाना | सादर सुरपति कीन बखाना ||
संकट रहै न एक रति को | ध्यान धरै हनुमान जती को ||
धावहु देखि दीनता मोरी | कहौं पवनसुत जगकर जोरी ||
कपिपति बेगि अनुग्रह करहु | आतुर आई दुसै दुःख हरहु ||
राम सपथ मै तुमहि सुनाया | जवन गुहार लाग सिय जाया ||
यश तुम्हार सकल जग जाना | भव बंधन भंजन हनुमाना ||
यह बंधन कर केतिक वाता || नाम तुम्हार जगत सुखदाता ||
करौ कृपा जय-जय जग स्वामी | बार अनेक नमामि-नमामी ||
भौमवार कर होम विधना | धुप दीप नैवेद्द सूजाना ||
मंगल दायक को लौ लावे | सुन नर मुनि वांछित फल पावें ||
जयति-2 जय-जय जग स्वामी | समरथ पुरुष सुअंतरआमी ||
अंजनि तनय नाम हनुमाना | सो तुलसी के प्राण समाना ||

।।दोहा।।
जय कपीस सुग्रीव तुम, जय अंगद हनुमान।।
राम लषन सीता सहित, सदा करो कल्याण।
।बन्दौं हनुमत नाम यह, भौमवार परमान।।
ध्यान धरै नर निश्चय, पावै पद कल्याण।।
जो नित पढ़ै यह साठिका, तुलसी कहैं बिचारि।
रहै न संकट ताहि को, साक्षी हैं त्रिपुरारि।।

।।सवैया।।
आरत बन पुकारत हौं कपिनाथ सुनो विनती मम भारी।अंगद औ नल-नील महाबलि देव सदा बल की बलिहारी ।।
जाम्बवन्त् सुग्रीव पवन-सुत दिबिद मयंद महा भटभारी । दुःख दोष हरो तुलसी जन-को श्री द्वादश बीरन की बलिहारी ।।
श्री सुब्रह्मण्य अष्टाकम


हे स्वामिनाथ करुणाकर दीनबन्धो, श्रीपार्वतीशमुखपङ्कज पद्मबन्धो ।
श्रीशादिदेवगणपूजितपादपद्म, वल्लीसनाथ मम देहि करावलम्बम् ॥१॥
देवादिदेवनुत देवगणाधिनाथ, देवेन्द्रवन्द्य मृदुपङ्कजमञ्जुपाद ।
देवर्षिनारदमुनीन्द्रसुगीतकीर्ते, वल्लीसनाथ मम देहि करावलम्बम् ॥२॥
नित्यान्नदान निरताखिल रोगहारिन्, तस्मात्प्रदान परिपूरितभक्तकाम ।
शृत्यागमप्रणववाच्यनिजस्वरूप, वल्लीसनाथ मम देहि करावलम्बम् ॥३॥
क्रौञ्चासुरेन्द्र परिखण्डन शक्तिशूल, पाशादिशस्त्रपरिमण्डितदिव्यपाणे ।
श्रीकुण्डलीश धृततुण्ड शिखीन्द्रवाह,वल्लीसनाथ मम देहि करावलम्बम् ॥४॥
देवादिदेव रथमण्डल मध्य वेद्य, देवेन्द्र पीठनगरं दृढचापहस्तम् ।
शूरं निहत्य सुरकोटिभिरीड्यमान, वल्लीसनाथ मम देहि करावलम्बम् ॥५॥
हारादिरत्नमणियुक्तकिरीटहार, केयूरकुण्डललसत्कवचाभिराम ।
हे वीर तारक जयाज़्मरबृन्दवन्द्य, वल्लीसनाथ मम देहि करावलम्बम् ॥६॥
पञ्चाक्षरादिमनुमन्त्रित गाङ्गतोयैः, पञ्चामृतैः प्रमुदितेन्द्रमुखैर्मुनीन्द्रैः ।
पट्टाभिषिक्त हरियुक्त परासनाथ, वल्लीसनाथ मम देहि करावलम्बम् ॥७॥
श्रीकार्तिकेय करुणामृतपूर्णदृष्ट्या, कामादिरोगकलुषीकृतदुष्टचित्तम् ।
भक्त्वा तु मामवकलाधर कान्तिकान्त्या, वल्लीसनाथ मम देहि करावलम्बम् ॥८॥
सुब्रह्मण्य करावलम्बं पुण्यं ये पठन्ति द्विजोत्तमाः । ते सर्वे मुक्ति मायान्ति सुब्रह्मण्य प्रसादतः ।
सुब्रह्मण्य करावलम्बमिदं प्रातरुत्थाय यः पठेत् । कोटिजन्मकृतं पापं तत्‍क्षणादेव नश्यति ॥