आंवला नवमी की व्रत कथा
– आंवला नवमी की व्रत कथा: कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को आंवला नवमी मनाई जाती है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को आमला (आंवला) नवमी (आंवला वृक्ष की पूजा परिक्रमा), आरोग्य नवमी, अक्षय नवमी, कूष्मांड नवमी के नाम से जाना जाता है। आंवला नवमी को अक्षय नवमी के नाम से भी जाना जाता है। आज के दिन सहपरिवार आंवले के पेड़ की आराधना की जाती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को जो कोई आंवले के पेड़ का पूजन परिवार सहित करता है उसे आरोग्य जीवन और सुख-सौभाग्य प्राप्त होता है। मान्यता के अनुसार, इस दिन किया गया तप, जप, दान इत्यादि व्यक्ति को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त करता है। आंवला नवमी की पूजा के दौरान इससे जुड़ी इस कथा को जरूर पढ़ना या सुनना चाहिए। तभी इस पूजा का अक्षय फल भक्तों को प्राप्त होता है। कहा जाता है कि अगर इस दिन कोई भी शुभ काम किया जाए तो उससे अक्षय फल की प्राप्ति होती है। पूजा के दौरान आंवला नवमी की कथा भी सुनी जाती है। आइए पढ़ते हैं आंवला नवमी की कथा।
आंवला नवमी की कहानी व्रत के समय कही और सुनी जाती है। किसी भी व्रत को रखने के दौरान हमें उस व्रत की कहानी और उसके महत्व का ज्ञान होना जरुरी होता है। तो आइए आज आप भी जानें अक्षय नवमी की व्रत कथा के बारे में।
आंवला नवमी की पूजा विधि |
महिलाओं को इस दिन सुबह जल्दी स्नान करके आंवले के पेड़ के पास जाना चाहिए और उसके आस-पास सफाई करके पेड़ की जड़ में साफ पानी चढ़ाना चाहिए। इसके बाद पेड़ की जड़ में दूध चढ़ाना चाहिए। चढ़ाया हुआ थोड़ा दूध और वो मिट्टी सिर पर लगानी चाहिए। पूजन सामग्रियों से पेड़ की पूजा करें और उसके तने पर कच्चा सूत या मौली 8 परिक्रमा करते हुए लपेटें। कहीं-कहीं 108 परिक्रमा भी की जाती है। पूजन के बाद परिवार और संतान की सुख-समृद्धि की कामना करके पेड़ के नीचे बैठकर परिवार व मित्रों के साथ भोजन ग्रहण करना चाहिए।
आंवला नवमी का धार्मिक महत्व |
आंवला नवमी के दिन ही भगवान विष्णु ने कुष्माण्डक नामक दैत्य को मारा था। आंवला नवमी पर ही भगवान श्रीकृष्ण ने कंस का वध करने से पहले तीन वनों की परिक्रमा की थी। आंवला नवमी पर बहुत से लोग मथुरा- वृंदावन की परिक्रमा करते हैं। संतान प्राप्ति के लिए की गई पूजा पर व्रत भी रखा जाता है और इस दिन रात में भगवान विष्णु को याद करते हुए जगराता किया जाता है
आंवला नवमी की कथा |
आंवला नवमी पर आंवले के पेड़ के नीचे पूजा और भोजन करने की प्रथा की शुरुआत माता लक्ष्मी ने की थी। कथा के अनुसार, एक बार मां लक्ष्मी पृथ्वी पर घूमने के लिए आईं। धरती पर आकर मां लक्ष्मी सोचने लगीं कि भगवान विष्णु और शिवजी की पूजा एक साथ कैसे की जा सकती है। तभी उन्हें याद आया कि तुलसी और बेल के गुण आंवले में पाए जाते हैं। तुलसी भगवान विष्णु को और बेल शिवजी को प्रिय है।
उसके बाद मां लक्ष्मी ने आंवले के पेड़ की पूजा करने का निश्चय किया। मां लक्ष्मी की भक्ति और पूजा से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु और शिवजी साक्षात प्रकट हुए। माता लक्ष्मी ने आंवले के पेड़ के नीचे भोजन तैयार करके भगवान विष्णु व शिवजी को भोजन कराया और उसके बाद उन्होंने खुद भी वहीं भोजन ग्रहण किया। मान्यताओं के अनुसार, आंवला नवमी के दिन अगर कोई महिला आंवले के पेड़ की पूजा कर उसके नीचे बैठकर भोजन ग्रहण करती है, तो भगवान विष्णु और शिवजी उसकी सभी इच्छाएं पूर्ण करते हैं। इस दिन महिलाएं अपनी संतना की दीर्घायु तथा अच्छे स्वास्थ्य लेकर कामना करती हैं।
आंवला नवमी की कथा |
एक राज्य में आंवलया नाम का राजा था। राजा ने यह प्रण लिया था कि वह अपनी प्रजा में रोजाना सवा मन आंवला दान करेगा। उसके बाद ही खाना ग्रहण करेगा। राजा अपने प्रण के अनुसार ऐसा ही करता था। लेकिन उसके बेटे और बहु को यह बात पसंद नहीं थी। इसलिए एक दिन उसके बेटे-बहु ने सोचा कि राजा इतने सारे आंवले रोजाना दान करते हैं, इस प्रकार तो एक दिन सारा खजाना खाली हो जायेगा। एक दिन बेटे ने राजा से कहा की उसे इस तरह दान करना बंद कर देना चाहिए। राजकुमार की बात सुनकर राजा को बहुत दुःख हुआ और राजा ने रानी के साथ महल का त्याग कर दिया। फिर क्या था, राजा आंवला दान नहीं कर पाए और अपने प्रण के कारण कुछ खाया नहीं। जब भूखे प्यासे सात दिन हो गए तब भगवान को उनके ऊपर दया आ गई।
इसलिए भगवान ने, राजा के लिए जंगल में ही महल, राज्य और बाग-बगीचे सब बना दिए और ढेरों आंवले के पेड़ लगा दिए। जब राजा रानी ने यह देखा कि जंगल में उनके राज्य से भी दोगुना राज्य बसा हुआ है। राजा, रानी से कहने लगे रानी देख कहते हैं, कभी भी सत्य का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। आओ नहा धोकर आंवला दान करें और भोजन करें। राजा-रानी ने आंवले दान करके खाना खाया और खुशी-खुशी नए महल में रहने लगे। उधर आंवला देवता का अपमान करने व माता-पिता से बुरा व्यवहार करने के कारण राजकुमार के बुरे दिन आ गए।
उसका राज्य शत्रुओं ने छीन लिया। वह दाने-दाने को मोहताज हो गया और काम ढूंढते हुए अपने पिताजी के राज्य में आ पहुंचा। उसकी हालात इतनी बिगड़ी हुई थी कि पिता ने उन्हें बिना पहचाने हुए काम पर रख लिया। बेटे-बहु सोच भी नहीं सकते कि उनके माता-पिता इतने बड़े राज्य के मालिक भी हो सकते हैं सो उन्होंने भी अपने माता-पिता को नहीं पहचाना। एक-दिन बहु ने सास के बाल गूंथते समय उनकी पीठ पर मस्सा देखा। उसे यह सोचकर रोना आने लगा कि ऐसा मस्सा मेरी सास के भी था। हमने ये सोचकर उन्हें आंवले दान करने से रोका था कि हमारा धन नष्ट हो जाएगा। आज वे लोग न जाने कहां होगे ?
यह सोचकर बहु को रोना आने लगा और आंसू टपक टपक कर सास की पीठ पर गिरने लगे। रानी ने तुरंत पलट कर देखा और पूछा कि, तू क्यों रो रही है? उसने बताया आपकी पीठ जैसा मस्सा मेरी सास की पीठ पर भी था। हमने उन्हें आंवले दान करने से मना कर दिया था इसलिए वे घर छोड़कर कहीं चले गए। तब रानी ने उन्हें पहचान लिया। सारा हाल पूछा और अपना हाल बताया। अपने बेटे-बहू को समझाया कि दान करने से धन कम नहीं होता बल्कि बढ़ता है। बेटे-बहु भी अब सुख से राजा-रानी के साथ रहने लगे।
आंवला नवमी की कथा:
आंवला नवमी के दिन एक सेठ ब्राह्मणों को आंवले के पेड़ के नीचे बैठाकर भोजन कराया करते थे। साथ ही उन्हें सोना सदान किया करते थे। यह सब देख सेठ के पुत्रों को अच्छा नहीं लगता था। यह देख वो अपने पिता से बहुत झगड़ा करते थे। रोज-रोज की लड़ाई से तंग आकर वो दूसरे गांव में रहने चला गया। जीवनयापन के लिए उसने वहां एक दुकान लगाई। उसी दुकान के आगे सेठ ने एक आंवले का पेड़ लगाया। कृपा कुछ ऐसी हुई की दुकान खूब चलने लगी।
यहां भी उसने अपना नियम नहीं छोड़ा। वह आंवला नवमी का व्रत-पूजा करता था और ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देता था। वहीं, दूसरी ओर सेठ के पुत्रों का व्यापार ठप हो गया। उनके बेटों को समझ आने लगा कि वो अपने पिता के भाग्य से ही खाते थे। अपनी गलती समझकर वे अपने पिता के पास गए और अपनी गलती की माफी मांगने लगे। फिर पिता के कहे अनुसार उन्होंने आंवले के पेड़ की पूजा करनी शुरू की और दान करने लगे। इसके प्रभाव से सेठ के बेटों के घर पहले की तरह खुशहाली आ गई।
अक्षय नवमी/ आंवला नवमी / कूष्मांडा नवमी की व्रत कथा -4
काशी नगर में एक नि:संतान धर्मात्मा और दानी वैश्य रहता था. एक दिन वैश्य की पत्नी से एक पड़ोसन बोली यदि तुम किसी पराए बच्चे की बलि भैरव के नाम से चढ़ा दो तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा. यह बात जब वैश्य को पता चली तो उससे मना कर दिया लेकिन उसकी पत्नी मौके की तलाश में लगी रही. एक दिन एक कन्या को उसने कुएं में गिराकर भैरो देवता के नाम पर बलि दे दी. इस हत्या का परिणाम विपरीत हुआ. लाभ की बजाय उसके पूरे बदन में कोढ़ हो गया और लड़की की प्रेतात्मा उसे सताने लगी. वैश्य के पूछने पर उसकी पत्नी ने सारी बात बता दी. इस पर वैश्य कहना गोवध, ब्राह्मण वध तथा बाल वध करने वाले के लिए इस संसार में कहीं जगह नहीं है, इसलिए तू गंगातट पर जाकर भगवान का भजन कर गंगा स्नान कर तभी तू इस कष्ट से मुक्ति पा सकती है.
वैश्य की पत्नी गंगा किनारे रहने लगी. कुछ दिन बाद गंगा माता वृद्ध महिला का वेष धारण कर उसके पास आयीं और बोलीं यदि तुम मथुरा जाकर कार्तिक नवमी का व्रत तथा आंवला वृक्ष की परिक्रमा और पूजा करोगी तो ऐसा करने से तेरा यह कोढ़ दूर हो जाएगा. वृद्ध महिला की बात मानकर वैश्य की पत्नी अपने पति से आज्ञा लेकर मथुरा जाकर विधिपूर्वक आंवला का व्रत करने लगी. ऐसा करने से वह भगवान की कृपा से दिव्य शरीर वाली हो गई तथा उसे पुत्र की प्राप्ति भी हुई.
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