Wednesday, June 15, 2022

 जय जयकार माता की आओ शरण भवानी की

एक बार फिर प्रेम से बोलो जय दुर्गा महारानी की

जय दुर्गा महारानी की


पहली देवी शैलपुत्री है किये बैल की सवारी

अर्धचन्दर माथे पर सोहे

सुन्दर रूप मनोहारी, सुन्दर रूप मनोहारी

लिए कमण्डल फूल कमल के और रुद्राक्षो की माला

हुई दूसरी ब्रहमचारिणी

करे जगत में उजियाला, करे जगत में उजियाला


पूर्ण चंद्रमा सी निर्मल देवी चंद्रघंटा माता

इनके सुमिरन से निर्बल भी

बैरी पर है जय पता, बैरी पर है जय पता

जय जयकार माता की आओ शरण भवानी की

एक बार फिर प्रेम से बोलो जय दुर्गा महारानी की

जय दुर्गा महारानी की


चौथी देवी कूष्मांडा है इनकी लीला है न्यारी

अमृत भरा कलश है कर में

किये बाघ की सवारी, किये बाघ की सवारी

कर में कमल सिंह पर आसन

सब का शुभ करने वाली

मंगलमयी कंदमाता है

जग का दुःख हरने वाली, जग का दुःख हरने वाली


मुनि कात्यायन की ये कन्या, है सबकी कत्यानी माँ

दानवता की शत्रु और

मानवता की सुखदायिनी माँ, मानवता की सुखदायिनी माँ

जय जयकार माता की आओ शरण भवानी की

एक बार फिर प्रेम से बोलो जय दुर्गा महारानी की

जय दुर्गा महारानी की


यही काल रात्रि देवी है महाप्रलय ढाने वाली

सब प्राणी के खाने वाली

काल को भी खाने वाली, कल को भी खाने वाली

श्वेत बैल है वाहन जिनका, तन पर स्वेताम्बर भाता

यही महा गौरी देवी है

सबकी जगदम्बा माता, सबकी जगदम्बा माता


शंख चक्र और गदा पदम्, कर में धारण करने वाली

यही सीधी दात्री माता है

रिद्धि सिद्धि देने वाली, रिद्धि सिद्धि देने वाली

जय जयकार माता कीआओ शरण भवानी की

एक बार फिर प्रेम से बोलो जय दुर्गा महारानी की

जय दुर्गा महारानी की.

Wednesday, June 8, 2022


शिव तांडव स्तोत्र

जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले

गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।

डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं

चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥


जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।

विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।

धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके

किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥


धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-

स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे ।

कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि

कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥


जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-

कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।

मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे

मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥


सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-

प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।

भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः

श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥


ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-

निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्‌ ।

सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं

महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥


कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-

द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।

धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-

प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥



नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-

त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः ।

निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः

कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥


प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-

विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌

स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं

गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥


अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-

रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌ ।

स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं

गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥


जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर-

द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-

धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-

ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥


दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-

र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।

तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः

समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥


कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्‌

विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।

विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः

शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌कदा सुखी भवाम्यहम्‌॥13॥


निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-

निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।

तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं

परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥



प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी

महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।

विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः

शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥15॥


इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं

पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।

हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं

विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥


पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं

यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।

तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां

लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥


Shiv Tandav Stotram in English

Jatatavigalajjala pravahapavitasthale

Galeavalambya lambitam bhujangatungamalikam

Damad damad damaddama ninadavadamarvayam

Chakara chandtandavam tanotu nah shivah shivam


Jata kata hasambhrama bhramanilimpanirjhari

Vilolavichivalarai virajamanamurdhani

Dhagadhagadhagajjva lalalata pattapavake

Kishora chandrashekhare ratih pratikshanam mama


Dharadharendrana ndinivilasabandhubandhura

Sphuradigantasantati pramodamanamanase

Krupakatakshadhorani nirudhadurdharapadi

Kvachidigambare manovinodametuvastuni


Jata bhujan gapingala sphuratphanamaniprabha

Kadambakunkuma dravapralipta digvadhumukhe

Madandha sindhu rasphuratvagutariyamedure

Mano vinodamadbhutam bibhartu bhutabhartari


Sahasra lochana prabhritya sheshalekhashekhara

Prasuna dhulidhorani vidhusaranghripithabhuh

Bhujangaraja malaya nibaddhajatajutaka

Shriyai chiraya jayatam chakora bandhushekharah


Lalata chatvarajvaladhanajnjayasphulingabha

nipitapajnchasayakam namannilimpanayakam

Sudha mayukha lekhaya virajamanashekharam

Maha kapali sampade shirojatalamastunah


Karala bhala pattikadhagaddhagaddhagajjvala

Ddhanajnjaya hutikruta prachandapajnchasayake

Dharadharendra nandini kuchagrachitrapatraka

Prakalpanaikashilpini trilochane ratirmama


navina megha mandali niruddhadurdharasphurat

Kuhu nishithinitamah prabandhabaddhakandharah

nilimpanirjhari dharastanotu krutti sindhurah

Kalanidhanabandhurah shriyam jagaddhurandharah


Praphulla nila pankaja prapajnchakalimchatha

Vdambi kanthakandali raruchi prabaddhakandharam

Smarachchidam purachchhidam bhavachchidam makhachchidam

Gajachchidandhakachidam tamamtakachchidam bhaje


Akharvagarvasarvamangala kalakadambamajnjari

Rasapravaha madhuri vijrumbhana madhuvratam

Smarantakam purantakam bhavantakam makhantakam

Gajantakandhakantakam tamantakantakam bhaje


Jayatvadabhravibhrama bhramadbhujangamasafur

Dhigdhigdhi nirgamatkarala bhaal havyavat

Dhimiddhimiddhimidhva nanmrudangatungamangala

Dhvanikramapravartita prachanda tandavah shivah


Drushadvichitratalpayor bhujanga mauktikasrajor

Garishtharatnaloshthayoh suhrudvipakshapakshayoh

Trushnaravindachakshushoh prajamahimahendrayoh

Sama pravartayanmanah kada sadashivam bhaje


Kada nilimpanirjhari nikujnjakotare vasanh

Vimuktadurmatih sada shirah sthamajnjalim vahanh

Vimuktalolalochano lalamabhalalagnakah

Shiveti mantramuchcharan sada sukhi bhavamyaham


Imam hi nityameva muktamuttamottamam stavam

Pathansmaran bruvannaro vishuddhimeti santatam

Hare gurau subhaktimashu yati nanyatha gatim

Vimohanam hi dehinam sushankarasya chintanam

Friday, April 22, 2022

 मोहिनी एकादशी

पारण का अर्थ है व्रत तोड़ना। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद एकादशी का पारण किया जाता है. जब तक सूर्योदय से पहले द्वादशी समाप्त न हो जाए, तब तक द्वादशी तिथि के भीतर ही पारण करना आवश्यक है। द्वादशी में पारण न करना अपराध के समान है।


हरि वासरा के दौरान पारण नहीं करना चाहिए। व्रत तोड़ने से पहले हरि वासरा के खत्म होने का इंतजार करना चाहिए। हरि वासरा द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने का सबसे पसंदीदा समय प्रात:काल है। मध्याह्न के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। यदि किसी कारणवश कोई व्यक्ति प्रात:काल के दौरान व्रत नहीं तोड़ पाता है तो उसे मध्याह्न के बाद करना चाहिए।


कई बार एकादशी का व्रत लगातार दो दिन करने की सलाह दी जाती है। यह सलाह दी जाती है कि स्मार्त को परिवार के साथ पहले दिन ही उपवास रखना चाहिए। वैकल्पिक एकादशी उपवास, जो दूसरा है, संन्यासियों, विधवाओं और मोक्ष चाहने वालों के लिए सुझाया गया है। जब स्मार्त के लिए वैकल्पिक एकादशी उपवास का सुझाव दिया जाता है तो यह वैष्णव एकादशी उपवास के दिन के साथ मेल खाता है।


भगवान विष्णु के प्रेम और स्नेह की तलाश करने वाले कट्टर भक्तों के लिए दोनों दिन एकादशी का उपवास करने का सुझाव दिया गया है।

 अक्षय तृतीया

अक्षय तृतीया जिसे आखा तीज के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू समुदायों के लिए अत्यधिक शुभ और पवित्र दिन है। यह वैशाख मास की शुक्ल पक्ष तृतीया को पड़ता है। रोहिणी नक्षत्र के दिन बुधवार के साथ पड़ने वाली अक्षय तृतीया को बहुत शुभ माना जाता है। अक्षय (अक्षय) शब्द का अर्थ है कभी कम न होने वाला। इसलिए इस दिन कोई भी जप, यज्ञ, पितृ-तर्पण, दान-पुण्य करने का लाभ कभी कम नहीं होता और व्यक्ति के पास हमेशा बना रहता है।


ऐसा माना जाता है कि अक्षय तृतीया सौभाग्य और सफलता लाती है। ज्यादातर लोग इस दिन सोना खरीदते हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि अक्षय तृतीया पर सोना खरीदने से आने वाले भविष्य में समृद्धि और अधिक धन आता है। अक्षय दिवस होने के कारण यह माना जाता है कि इस दिन खरीदा गया सोना कभी कम नहीं होगा और बढ़ता या बढ़ता रहेगा।


अक्षय तृतीया दिवस पर भगवान विष्णु का शासन है जो हिंदू ट्रिनिटी में संरक्षक भगवान हैं। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार अक्षय तृतीया के दिन त्रेता युग की शुरुआत हुई थी। आमतौर पर अक्षय तृतीया और परशुराम जयंती, भगवान विष्णु के छठे अवतार की जयंती, एक ही दिन पड़ती है, लेकिन तृतीया तिथि के घूरने के समय के आधार पर परशुराम जयंती अक्षय तृतीया के एक दिन पहले पड़ सकती है।


वैदिक ज्योतिषी भी अक्षय तृतीया को सभी अशुभ प्रभावों से मुक्त एक शुभ दिन मानते हैं। हिंदू चुनावी ज्योतिष के अनुसार तीन चंद्र दिन, युगादि, अक्षय तृतीया और विजय दशमी को किसी भी शुभ कार्य को शुरू करने या करने के लिए किसी मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि ये तीन दिन सभी हानिकारक प्रभावों से मुक्त होते हैं।

 परशुराम जयंती

परशुराम जयंती भगवान विष्णु के छठे अवतार की जयंती के रूप में मनाई जाती है। यह वैशाख मास की शुक्ल पक्ष तृतीया को पड़ता है। ऐसा माना जाता है कि परशुराम का जन्म प्रदोष काल के दौरान हुआ था और इसलिए जिस दिन प्रदोष काल के दौरान तृतीया होती है उस दिन को परशुराम जयंती समारोह के लिए माना जाता है। भगवान विष्णु के छठे अवतार का उद्देश्य पापी, विनाशकारी और अधार्मिक राजाओं को नष्ट करके पृथ्वी के बोझ को दूर करना है, जिन्होंने इसके संसाधनों को लूटा और राजाओं के रूप में अपने कर्तव्यों की उपेक्षा की।


हिंदू मान्यता के अनुसार अन्य सभी अवतारों के विपरीत परशुराम अभी भी पृथ्वी पर रहते हैं। इसलिए, राम और कृष्ण के विपरीत, परशुराम की पूजा नहीं की जाती है। दक्षिण भारत में, उडुपी के पास पवित्र स्थान पजाका में, एक प्रमुख मंदिर मौजूद है जो परशुराम का स्मरण करता है। भारत के पश्चिमी तट पर कई मंदिर हैं जो भगवान परशुराम को समर्पित हैं।


कल्कि पुराण में कहा गया है कि परशुराम भगवान विष्णु के 10वें और अंतिम अवतार श्री कल्कि के मार्शल गुरु होंगे। यह पहली बार नहीं है जब भगवान विष्णु का छठा अवतार किसी अन्य अवतार से मिलेगा। रामायण के अनुसार, परशुराम सीता और भगवान राम के विवाह समारोह में आए और भगवान विष्णु के 7वें अवतार से मिले।

 अपरा एकादशी

पारण का अर्थ है व्रत तोड़ना। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद एकादशी का पारण किया जाता है. जब तक सूर्योदय से पहले द्वादशी समाप्त न हो जाए, तब तक द्वादशी तिथि के भीतर ही पारण करना आवश्यक है। द्वादशी में पारण न करना अपराध के समान है।


हरि वासरा के दौरान पारण नहीं करना चाहिए। व्रत तोड़ने से पहले हरि वासरा के खत्म होने का इंतजार करना चाहिए। हरि वासरा द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने का सबसे पसंदीदा समय प्रात:काल है। मध्याह्न के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। यदि किसी कारणवश कोई व्यक्ति प्रात:काल के दौरान व्रत नहीं तोड़ पाता है तो उसे मध्याह्न के बाद करना चाहिए।


कई बार एकादशी का व्रत लगातार दो दिन करने की सलाह दी जाती है। यह सलाह दी जाती है कि स्मार्त को परिवार के साथ पहले दिन ही उपवास रखना चाहिए। वैकल्पिक एकादशी उपवास, जो दूसरा है, संन्यासियों, विधवाओं और मोक्ष चाहने वालों के लिए सुझाया गया है। जब स्मार्त के लिए वैकल्पिक एकादशी उपवास का सुझाव दिया जाता है तो यह वैष्णव एकादशी उपवास के दिन के साथ मेल खाता है।


भगवान विष्णु के प्रेम और स्नेह की तलाश करने वाले कट्टर भक्तों के लिए दोनों दिन एकादशी का उपवास करने का सुझाव दिया गया है।

नारद जयंती

 नारद जयंती 


नारद जयंती को देवर्षि नारद मुनि की जयंती के रूप में मनाया जाता है। वैदिक पुराणों और पौराणिक कथाओं के अनुसार देवर्षि नारद एक सार्वभौमिक दिव्य दूत और देवताओं के बीच सूचना का प्राथमिक स्रोत हैं। नारद मुनि में सभी किशोर लोकों, आकाश या स्वर्ग, पृथ्वी या पृथ्वी और पाताल या नीदरलैंड की यात्रा करने की क्षमता है और माना जाता है कि वे पृथ्वी पर पहले पत्रकार थे। नारद मुनि सूचनाओं का संचार करने के लिए पूरे ब्रह्मांड में भ्रमण करते रहते हैं। हालाँकि, उनकी अधिकांश सामयिक जानकारी परेशानी पैदा करती है लेकिन वह ब्रह्मांड की बेहतरी के लिए है।


ऋषि नारद भगवान नारायण के प्रबल भक्त हैं, जो भगवान विष्णु के रूपों में से एक हैं। नारायण के रूप में भगवान विष्णु को सत्य का अवतार माना जाता है।


उत्तर भारतीय पूर्णिमांत कैलेंडर के अनुसार ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष के दौरान प्रतिपदा तिथि को नारद जयंती मनाई जाती है। दक्षिण भारतीय अमावस्यंत कैलेंडर के अनुसार नारद जयंती वैशाख महीने के कृष्ण पक्ष के दौरान प्रतिपदा तिथि को पड़ती है। यह चंद्र मास का नाम है जो अलग है और दोनों प्रकार के कैलेंडर में नारद जयंती एक ही दिन पड़ती है।

नरसिंह जयंती

 नरसिंह जयंती

वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को नरसिंह जयंती के रूप में मनाया जाता है। भगवान नरसिंह भगवान विष्णु के चौथे अवतार थे। नरसिंह जयंती के दिन भगवान विष्णु नरसिंह के रूप में प्रकट हुए, आधा शेर और आधा आदमी, राक्षस हिरण्यकश्यप को मारने के लिए।


वैशाख शुक्ल चतुर्दशी का स्वाति नक्षत्र और सप्ताह के शनिवार के साथ संयोजन नरसिंह जयंती व्रतम का पालन करने के लिए अत्यधिक शुभ माना जाता है।


नरसिंह जयंती के उपवास के नियम और दिशा-निर्देश एकादशी उपवास के समान हैं। नरसिंह जयंती से एक दिन पहले भक्त केवल एक बार भोजन करते हैं। नरसिंह जयंती के उपवास के दौरान सभी प्रकार के अनाज और अनाज वर्जित हैं। पारण, जिसका अर्थ है उपवास तोड़ना, अगले दिन उचित समय पर किया जाता है।


नरसिंह जयंती के दिन भक्त मध्याह्न (हिंदू दोपहर की अवधि) के दौरान संकल्प लेते हैं और सूर्यास्त से पहले संयाकाल के दौरान भगवान नरसिंह पूजन करते हैं। ऐसा माना जाता है कि भगवान नरसिंह सूर्यास्त के दौरान प्रकट हुए थे, जबकि चतुर्दशी प्रचलित थी। रात्रि जागरण करने और अगले दिन सुबह विसर्जन पूजा करने की सलाह दी जाती है। विसर्जन पूजा करने और ब्राह्मण को दान देने के बाद अगले दिन उपवास तोड़ना चाहिए।


चतुर्दशी तिथि समाप्त होने पर सूर्योदय के अगले दिन नरसिंह जयंती व्रत तोड़ा जाता है। यदि चतुर्दशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो जाती है तो जयंती की रस्में समाप्त करने के बाद सूर्योदय के बाद किसी भी समय उपवास तोड़ा जाता है। यदि चतुर्दशी बहुत देर से समाप्त हो जाती है अर्थात चतुर्दशी दिनमान के तीन चौथाई से अधिक रहती है तो दिनमान के पहले भाग में उपवास तोड़ा जा सकता है। दिनमान सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच का समय खिड़की है।

सीता नवमी

 सीता नवमी

सीता नवमी को देवी सीता की जयंती के रूप में मनाया जाता है। इस दिन को सीता जयंती के नाम से भी जाना जाता है। विवाहित महिलाएं सीता नवमी के दिन व्रत रखती हैं और अपने पति की लंबी उम्र की कामना करती हैं।


सीता जयंती वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को मनाई जाती है। मान्यता है कि मंगलवार के दिन पुष्य नक्षत्र में माता सीता का जन्म हुआ था। देवी सीता का विवाह भगवान राम से हुआ था, जिनका जन्म भी चैत्र माह के शुक्ल पक्ष के दौरान नवमी तिथि को हुआ था। हिंदू कैलेंडर में सीता जयंती रामनवमी के एक महीने के बाद आती है।


माता सीता को जानकी के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि वह मिथिला के राजा जनक की दत्तक पुत्री थीं। इसलिए इस दिन को जानकी नवमी के नाम से भी जाना जाता है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब राजा जनक यज्ञ करने के लिए भूमि की जुताई कर रहे थे, तो उन्हें सोने के ताबूत में एक बच्ची मिली। जमीन जोतते समय खेत के अंदर सोने का ताबूत मिला था। एक जुताई वाली भूमि को सीता कहा जाता है इसलिए राजा जनक ने बच्ची का नाम सीता रखा।

बुद्ध पूर्णिमा

 बुद्ध पूर्णिमा 2022


वैशाख माह के दौरान बुद्ध पूर्णिमा को गौतम बुद्ध की जयंती के रूप में मनाया जाता है। गौतम बुद्ध जिनका जन्म नाम सिद्धार्थ था गौतम एक आध्यात्मिक शिक्षक थे जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म की स्थापना हुई थी।


गौतम बुद्ध के जन्म और मृत्यु का समय अनिश्चित है। हालाँकि, अधिकांश इतिहासकार उनके जीवनकाल को 563-483 ई.पू. अधिकांश लोग लुंबिनी, नेपाल को बुद्ध का जन्म स्थान मानते हैं। बुद्ध का 80 वर्ष की आयु में उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में निधन हो गया।


बौद्धों के लिए, बोधगया गौतम बुद्ध के जीवन से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। अन्य तीन महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल कुशीनगर, लुंबिनी और सारनाथ हैं। ऐसा माना जाता है कि गौतम बुद्ध ने बोधगया में ज्ञान प्राप्त किया था और उन्होंने सबसे पहले सारनाथ में धर्म की शिक्षा दी थी।


ऐसा माना जाता है कि इसी दिन गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। बुद्ध पूर्णिमा को बुद्ध जयंती, वेसाक, वैशाख और बुद्ध के जन्मदिन के रूप में भी जाना जाता है।


उत्तर भारत में बुद्ध को 9वां अवतार और भगवान कृष्ण को भगवान विष्णु के 8वें अवतार के रूप में माना जाता है। हालांकि, दक्षिण भारतीय मान्यता में बुद्ध को कभी भी विष्णु का अवतार नहीं माना जाता है। दक्षिण भारत में, बलराम को 8वें अवतार के रूप में और कृष्ण को भगवान विष्णु के 9वें अवतार के रूप में माना जाता है। वैष्णव आंदोलनों के बहुमत से बलराम को विष्णु के अवतार के रूप में गिना जाता है। बौद्ध भी बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार नहीं मानते हैं।

वरुथिनी एकादशी

वरुथिनी एकादशी

समय - उत्तर भारतीय पूर्णिमांत कैलेंडर के अनुसार वैशाख महीने के कृष्ण पक्ष के दौरान वरुथिनी एकादशी और दक्षिण भारतीय अमावस्यंत कैलेंडर के अनुसार चैत्र माह के कृष्ण पक्ष के दौरान मनाई जाती है। हालाँकि उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय दोनों इसे एक ही दिन मनाते हैं। वर्तमान में यह अंग्रेजी कैलेंडर में मार्च या अप्रैल के महीने में आता है।


पारण का अर्थ है व्रत तोड़ना। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद एकादशी का पारण किया जाता है. जब तक सूर्योदय से पहले द्वादशी समाप्त न हो जाए, तब तक द्वादशी तिथि के भीतर ही पारण करना आवश्यक है। द्वादशी में पारण न करना अपराध के समान है।


हरि वासरा के दौरान पारण नहीं करना चाहिए। व्रत तोड़ने से पहले हरि वासरा के खत्म होने का इंतजार करना चाहिए। हरि वासरा द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने का सबसे पसंदीदा समय प्रात:काल है। मध्याह्न के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। यदि किसी कारणवश कोई व्यक्ति प्रात:काल के दौरान व्रत नहीं तोड़ पाता है तो उसे मध्याह्न के बाद करना चाहिए।


कई बार एकादशी का व्रत लगातार दो दिन करने की सलाह दी जाती है। यह सलाह दी जाती है कि स्मार्त को परिवार के साथ पहले दिन ही उपवास रखना चाहिए। वैकल्पिक एकादशी उपवास, जो दूसरा है, संन्यासियों, विधवाओं और मोक्ष चाहने वालों के लिए सुझाया गया है। जब स्मार्त के लिए वैकल्पिक एकादशी उपवास का सुझाव दिया जाता है तो यह वैष्णव एकादशी उपवास के दिन के साथ मेल खाता है।


भगवान विष्णु के प्रेम और स्नेह की तलाश करने वाले कट्टर भक्तों के लिए दोनों दिन एकादशी का उपवास करने का सुझाव दिया गया है। 

Saturday, April 2, 2022

 गुडी पडवा


गुड़ी पड़वा या संवत्सर पड़वो महाराष्ट्रीयन और कोंकणी द्वारा वर्ष के पहले दिन के रूप में मनाया जाता है। इस दिन नया संवत्सर शुरू होता है, जो साठ साल का चक्र होता है। सभी साठ संवत्सर अद्वितीय नाम से पहचाने जाते हैं। 


गुड़ी पड़वा कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के लोगों द्वारा उगादी के रूप में मनाया जाता है। गुड़ी पड़वा और उगादी दोनों एक ही दिन मनाए जाते हैं। गुड़ी पड़वा लूनी-सौर कैलेंडर के अनुसार मराठी नव वर्ष है। लूनी-सौर कैलेंडर वर्ष को महीनों और दिनों में विभाजित करने के लिए चंद्रमा की स्थिति और सूर्य की स्थिति पर विचार करते हैं। 


लूनी-सौर कैलेंडर का प्रतिरूप सौर कैलेंडर है जो वर्ष को महीनों और दिनों में विभाजित करने के लिए सूर्य की केवल स्थिति को मानता है। उस वजह से हिंदू नव वर्ष वर्ष में दो बार अलग-अलग नामों से और वर्ष के दो अलग-अलग समय पर मनाया जाता है। सौर कैलेंडर पर आधारित हिंदू नव वर्ष को तमिलनाडु में पुथांडु, असम में बिहू, पंजाब में वैसाखी, उड़ीसा में पाना संक्रांति और पश्चिम बंगाल में नबा बरशा के नाम से जाना जाता है। 


दिन की शुरुआत पूजा के बाद तेल-स्नान के साथ होती है। तेल स्नान और नीम के पत्ते खाना शास्त्रों द्वारा सुझाए गए अनुष्ठान हैं। उत्तर भारतीय गुड़ी पड़वा नहीं मनाते बल्कि नौ दिनों की चैत्र नवरात्रि पूजा उसी दिन शुरू करते हैं और नवरात्रि के पहले दिन मिश्री के साथ नीम भी खाते हैं।


गुड़ी पड़वा एक वसंत-समय का त्योहार है जो मराठी और कोंकणी हिंदुओं के लिए पारंपरिक नए साल का प्रतीक है, लेकिन अन्य हिंदुओं द्वारा भी मनाया जाता है।[2] यह चैत्र महीने के पहले दिन महाराष्ट्र, गोवा और केंद्र शासित प्रदेश दमन में और उसके आसपास मनाया जाता है, हिंदू कैलेंडर की चंद्र-सौर पद्धति के अनुसार नए साल की शुरुआत को चिह्नित करने के लिए। पड़वा या पड़वो संस्कृत शब्द प्रतिपदा से आया है, जो चंद्र पखवाड़े का पहला दिन होता है। वसंत उत्सव रंगीन फर्श की सजावट के साथ मनाया जाता है जिसे रंगोली कहा जाता है, एक विशेष गुढ़ी ध्वज (फूलों, आम और नीम के पत्तों के साथ ध्वजारोहण, चांदी या तांबे के बर्तनों के साथ सबसे ऊपर), सड़क जुलूस, नृत्य और उत्सव के भोजन।


गुड़ी उगाना गुड़ी पड़वा का मुख्य अनुष्ठान है


महाराष्ट्र में, चंद्रमा के उज्ज्वल चरण के पहले दिन को मराठी में गुड़ी पड़वा कहा जाता है, पाय्या (कोंकणी: पाड्यो; कन्नड़: ; तेलुगु: , पद्यामी)। कोंकणी हिंदू विभिन्न रूप से इस दिन को सौसार पाडवो या सौसार पाड्यो (संसार पाडवो / संसार पाय), संसार (संसार) के रूप में संदर्भित करते हैं, जो संवत्सर (संवत्सर) शब्द का भ्रष्टाचार है। तेलुगु हिंदू उसी अवसर को उगादि के रूप में मनाते हैं, जबकि कर्नाटक में कन्नड़ हिंदू इसे युगादि, (युगदी) के रूप में संदर्भित करते हैं। सिंधी समुदाय इस दिन को चेती चंद के रूप में नए साल के रूप में मनाता है और भगवान झूलेलाल के उद्भव दिवस के रूप में मनाया जाता है। भगवान झूलेलाल को प्रार्थना की पेशकश की जाती है और त्योहार ताहिरी (मीठे चावल) और साई भाजी (चना दाल के छिड़काव के साथ पका हुआ पालक) जैसे व्यंजन बनाकर मनाया जाता है।


उगादी

 उगादी या युगदी आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक के लोगों द्वारा वर्ष के पहले दिन के रूप में मनाया जाता है। इस दिन से नया संवत्सर शुरू होता है, जो साठ साल का चक्र होता है। सभी साठ संवत्सर अद्वितीय नाम से पहचाने जाते हैं। उगादी को महाराष्ट्र के लोग गुड़ी पड़वा के रूप में मनाते हैं। 


उगादी और गुड़ी पड़वा दोनों एक ही दिन मनाए जाते हैं। उगादी लूनी-सौर कैलेंडर के अनुसार नया साल है। लूनी-सौर कैलेंडर वर्ष को महीनों और दिनों में विभाजित करने के लिए चंद्रमा की स्थिति और सूर्य की स्थिति पर विचार करते हैं। 


लूनी-सौर कैलेंडर का प्रतिरूप सौर कैलेंडर है जो वर्ष को महीनों और दिनों में विभाजित करने के लिए सूर्य की केवल स्थिति को मानता है। उस वजह से हिंदू नव वर्ष वर्ष में दो बार अलग-अलग नामों से और वर्ष के दो अलग-अलग समय पर मनाया जाता है। सौर कैलेंडर पर आधारित हिंदू नव वर्ष को तमिलनाडु में पुथंडु, असम में बिहू, पंजाब में वैसाखी, उड़ीसा में पाना संक्रांति और पश्चिम बंगाल में नबा बरशा के नाम से जाना जाता है।

 दिन की शुरुआत पूजा के बाद तेल-स्नान के साथ होती है। तेल स्नान और नीम के पत्ते खाना शास्त्रों द्वारा सुझाए गए अनुष्ठान हैं। उत्तर भारतीय उगादि नहीं मनाते हैं लेकिन उसी दिन नौ दिनों की चैत्र नवरात्रि पूजा शुरू करते हैं और नवरात्रि के पहले दिन मिश्री के साथ नीम भी खाते हैं।


उगादी या युगादि, जिसे संवत्सरादि (लिट. 'बिगिनिंग ऑफ द ईयर') के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू कैलेंडर के अनुसार नए साल का दिन है और भारत में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक राज्यों में मनाया जाता है। यह इन क्षेत्रों में चैत्र के हिंदू चंद्र कैलेंडर माह के पहले दिन उत्सव के रूप में मनाया जाता है।

 यह आमतौर पर ग्रेगोरियन कैलेंडर के अप्रैल महीने में पड़ता है। 

 और यह तमिल महीने पंगुनी या चित्राई (कभी-कभी) में 27 वें नक्षत्र रेवती के साथ अमावस्या के बाद आता है। दिलचस्प बात यह है कि उगादि दिवस मार्च विषुव के बाद पहले अमावस्या को मनाया जाता है।


मुग्गुलु नामक फर्श पर रंगीन पैटर्न बनाकर, तोरण नामक दरवाजों पर आम के पत्तों की सजावट, नए कपड़े खरीदने और उपहार देने, गरीबों को दान देने, तेल मालिश के बाद विशेष स्नान, एक विशेष भोजन तैयार करने और साझा करने के द्वारा इस दिन को मनाया जाता है। पचड़ी कहलाते हैं, और हिंदू मंदिरों में जाते हैं। 

 पचड़ी एक उल्लेखनीय उत्सव का भोजन है जो सभी स्वादों को जोड़ता है - मीठा, खट्टा, नमकीन, कड़वा, कसैला और तीखा। तेलुगु और कन्नड़ हिंदू परंपराओं में, यह एक प्रतीकात्मक अनुस्मारक है कि आने वाले नए साल में सभी प्रकार के अनुभवों की अपेक्षा करनी चाहिए और उनका अधिकतम लाभ उठाना चाहिए।

 सौरमना कैलेंडर प्रणाली के अनुयायी, कर्नाटक में उगादि का पालन करते हैं, जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है, जो बैसाखी का त्योहार भी है, और स्थानीय रूप से इसे सौरमना उगादि या मेशा संक्रांति के रूप में जाना जाता है। 


उगादी हिंदुओं का एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक त्योहार रहा है, इस दिन मध्यकालीन ग्रंथों और शिलालेखों में हिंदू मंदिरों और सामुदायिक केंद्रों को प्रमुख धर्मार्थ दान दर्ज किए गए हैं।

Thursday, February 24, 2022

शंख


शंख को घर के पूजा स्थल में रखने से सौभाग्य में वृद्धि होती है। वेद पुराणों की मानें तो शंख समुद्रमंथन के दौरान उत्पन्न हुआ है। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि जहां शंख होता है वहां महालक्ष्मी का वास होता है। शंख की आवाज से वातावऱण में शुद्धता आती है। भारतीय संस्कृती और बौद्ध धर्म में शंख का महत्व काफ़ी ज़्यादा है। पूजा पाठ में तो इसे इस्तेमाल किया ही जाता है, साथ ही इसकी पूजा भी की जाती है। हर अच्छी शुरुआत से पहले इसे बजाना शुभ माना जाता है। साथ ही ये भी मान्यता है कि महाभारत की शुरूआत भी श्री कृष्ण के शंखनाद से ही हुई थी।

क्या आप जानते हैं कि शंख के भी प्रकार होते हैं, जिसे अलग-अलग तरीके से उपयोग में लाया जाता है।

1. दक्षिणावर्ती शंख, 2. वामावर्ती शंख, 3. गौमुखी शंख, 4. कौड़ी शंख,5. मोती शंख, 6. हीरा शंख

शंख में ये चीज डाल रखें इस दिशा में, होगी धन-धान्य एवं आर्थिक समृद्धि

शंख को कुबेर का भी प्रतीक माना जाता है, जो धन के देवता हैं। यही कारण है कि लोग इसकी पूजा करते हैं।शंखनाद करने से घर का वातावरण शुद्ध रहता है। ये भी कहा जाता है कि शंखनाद करने से दिल की बीमारी नहीं होती।


भारतीय संस्कृति में ये भी माना जाता है कि भगवान विष्णु के 4 हाथों में से एक हाथ में शंख होता है, और उन्हें सुदर्शन चक्र की ही तरह शंख से भी प्रेम है। जहां शंख की पूजा होती है, भगवान विष्णु उस जगह ज़रूर वास करते हैं। पुराण और वेदो में भी इसका ज्रिक किया गया है। बताया जाता है कि शंख की उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुई थी, जिसके बाद उसे भगवान विष्णु ने धारण किया था। शंख के आगे के हिस्से में सूर्य और वरूण देव का वास होता है जो घर में सकारात्मक उर्जा फैलाते हैं। साथ ही उसके पिछले हिस्से को गंगा का रूप माना जाता है जो शुद्धता का प्रतीक होता है। शंखनाद करने से जो ध्वनी उत्पन्न होती है उससे कई तरह के सूक्ष्म जीवाणु भी मारे जाते हैं।


विज्ञान भी शंखनाद की उपयोगिता को मानता है. इसके उपयोग से फेफड़े स्वस्थ रहते हैं और दिल की किसी भी तरह की बीमारी का डर खत्म होता है। अगर आपको रक्तचाप की समस्या है तो उसका भी रामबाण इलाज है शंखनाद।


शंखनाद करते वक़्त कुछ बातों का ध्यान रखना काफ़ी महत्वपूर्ण होता है:


जिस शंख को बजाया जाता है उसे पूजा के स्थान पर कभी नहीं रखा जाता


जिस शंख को बजाया जाता है उससे कभी भी भगवान को जल अर्पण नहीं करना चाहिए


एक मंदिर में या फ़िर पूजा स्थान पर कभी भी दो शंख नहीं रखने चाहिए


पूजा के दौरान शिवलिंग को शंख से कभी नहीं छूना चाहिए


भगवान शिव और सूर्य देवता को शंख से जल अर्पण कभी भी नहीं करना चाहिए


पूजा की शुरूआत और पूजा में आरती के बाद शंख को बजाया जाता है। पूजा में शंख को बजाने को लेकर कई नियम हैं।


1.धार्मिक मान्यताओं की मानें तो शंख का संबंध भगवान विष्णु से है। इस भगवान विष्णु के चार आयुध शस्त्रों में गिना जाता है। भगवान विष्ण के हाथों में चक्र, गदा, पदम यानी कमल का फूल और की तरह शंख भी होता है।


2.धार्मिक मान्यताओं के अनुसार य़ह भी कहा जाता है कि कहा जाता है कि पूजा में जब शंख बजाया जाता है तो इसकी ध्वनि से आकर्षित होकर भगवान विष्णु पूजा स्थल की ओर सकारात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं। इससे न सिर्फ शंख बजाने वाले को लाभ होता है बल्कि जो पूजा में शामिल हैं उन्हें भी इसका फायदा मिलता है।


3.शंख को पूजा स्थल में कपड़े में लपेटकर रखना चाहिए। इसके साथ ही शंख को घर के पूजा के कमरे में आसन पर रखना चाहिए।


4. घर में शंख को सबुह और शाम ही बजाना चाहिए। इसके अलावा शंखो को नहीं बजाना चाहिए।


5. मंदिर में एक से ज्यादा शंख नहीं होने चाहिए।


6. शंख को होली, दिवाली जैसे शुभ मुहर्त में ही पूजा स्थल में स्थापित किया जाना चाहिए।


7.अपना शंख न तो किसी को इस्तेमाल करने दें और न ही किसी और का शंख आप इस्तेमाल करें।


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अगर आपको शंख खरीद के घर लाना है तो दो शंख लाएं और इन दोनों को अलग अलग रखें।


2. बजने वाले शंख को पानी से धोना चाहिए लेकिन इसे किसी मंत्र से अभीमंत्रित नहीं करना चाहिए। शंख को पूजा स्थल में पीले कपड़े में लपेटकर रखना चाहिए।


3. और पूजा करने वाले शंख को गंगाजल से धोना चाहिए साथी सफ़ेद कपड़े में लपेट कर रखना चाहिए।


4 पूजा में इस्तेमाल होने वाले शंख को किसी ऊंची जगह पर रखना चाहिए। वहीँ बाजाने वाले शंख को उससे नीची जगह पर रखना चाहिए।


5. एक ही मंदिर में दो तरह के शंख नहीं रखने चाहिए। अगर दो रखने भी हैं तो एक बजाने के लिए रखें और एक पूजा करने के लिए।


6. शंख कभी भी शिवलिंग के आस पास नहीं रखना चाहिए, और यदि रखना है भी तो उसे छूना नहीं चाहिए।


7. शंख को कभी भी भगवान शिव या भगवान सूर्य को पानी चढ़ाने के लिए नहीं इस्तेमाल करना चाहिए।


मंदिर में की जाने वाली आरती हो या कोई भी धार्मिक समारोह, शख की ध्वनि को बजाना बहुत शुभ माना जाता है। मान्यता के अनुसार पूजा-पाठ के समस्त कार्य तीन बार शंख बजाने से शुरू किए जाते हैं। माना जाता है कि इससे वातावरण में से सभी प्रकार की अशुद्धियां का नाश होता है और हर तरह की नकारात्मक ऊर्जा का भी अंत होता है। जिससे व्यक्ति को बहुत लाभ मिलते हैं। शंख की ध्वनि से न केवल वातावरण शुद्घ होता है बल्कि देवता भी हमारी ओर आकर्षित होते हैं। इसके अलावा शंख की ध्वनि से पूजा की विविध वस्तुओं में चेतना जागृत होती है, जिससे हमारे द्वारा की गई पूजा सार्थक होती है। 


माना जाता है कि समुद्र मंथन के समय निकलने वाले चौदह रत्नों में से एक रत्न शंख भी था। धार्मिक और स्वास्थ्य की दृष्टि से शंख बहु उपयोगी है। शंख बजाने से कुंभक, रेचक तथा प्राणायाम क्रियाएं एक साथ होती हैं, जिससे स्वास्थ्य सही बना रहता है। यह कैल्शियम कार्बोनेट से बना होता है। यदि शंख में रातभर गंगाजल भरकर प्रातः सेवन किया जाए, तो शरीर में कैल्शियम तत्व की कमी नहीं होती है। आयुर्वेद के अनुसार, शंख की भस्म के औषधीय प्रयोग से हार्ट अटैक, ब्लड प्रेशर, अस्थमा, मंदाग्नि, मस्तिष्क और स्नायु तंत्र से जुड़े रोगों में लाभ मिलता है। लयबद्ध ढंग से शंख बजाने से फेफड़ों को मजबूती मिलती है, जिससे शरीर में शुद्ध आक्सीजन का प्रवाह होने से रक्त भी शुद्ध होता है। 


कहा जाता है कि दक्षिणवर्ती शंख धन की देवी लक्ष्मी का स्वरूप है, इसलिए धन लाभ और सुख-समृद्धि के लिए घर में उत्तर-पूर्व दिशा में अथवा पूजा घर में इसे रखना चाहिए। प्रतिदिन इसकी धूप दीप दिखाकर पूजा करनी चाहिए। पितृ दोष के असर से बचने के लिए दक्षिणवर्ती शंख में पानी भरकर अमावस्या और शनिवार के दिन दक्षिण दिशा में मुख करते हुए तर्पण करने से पितृ प्रसन्न होकर शुभ आशीर्वाद देते हैं, जिससे गृह कलह, कार्यों में बाधा, संतानहीनता और धन की कमी जैसी समस्याएं दूर होने लगती हैं। 


नवग्रहों की शांति एवं प्रसन्नता के लिए भी शंख को उपयोगी रत्न माना गया है। सूर्य ग्रह की प्रसन्नता के लिए सूर्योदय के समय शंख से सूर्यदेव पर जल अर्पित करना चाहिए। चंद्र ग्रह के अशुभ प्रभाव को दूर करने के लिए शंख में गाय का कच्चा दूध भरकर सोमवार को भगवान शिव पर चढ़ाना चाहिए। मंगल ग्रह को अपने अनुकूल बनाने के लिए मंगलवार के दिन सुंदरकांड का पाठ करते हुए शंख बजाना आसान और श्रेष्ठ उपाय है।


बुध ग्रह की प्रसन्नता के लिए शंख में जल और तुलसी दल लेकर शालिग्राम पर अर्पित करना चाहिए, वहीं गुरु ग्रह को प्रसन्न करने के लिए गुरुवार को दक्षिणवर्ती शंख पर केसर का तिलक लगाकर पूजा करने से भगवान विष्णु की कृपा मिलती है। शुक्र ग्रह के अशुभ प्रभाव को दूर करने के लिए शंख को श्वेत वस्त्र में लपेट कर पूजा घर में रखना चाहिए। धन-धान्य एवं आर्थिक समृद्धि पाने के लिए शंख में चावल भरकर लाल रंग के वस्त्र में लपेट कर उत्तर दिशा की ओर खुलने वाली तिजोरी अथवा धन रखने वाली अलमारी में रखना चाहिए।

 नरक चतुर्दशी पर अभ्यंग स्नान

पांच दिवसीय दिवाली उत्सव धनत्रयोदशी से शुरू होता है और भैया दूज के दिन तक चलता है। अभ्यंग स्नान तीन दिन यानी चतुर्दशी, अमावस्या और प्रतिपदा के दिनों में दिवाली के दौरान करने का सुझाव दिया गया है।


चतुर्दशी के दिन अभ्यंग स्नान, जिसे नरक चतुर्दशी के नाम से जाना जाता है, सबसे महत्वपूर्ण है। ऐसा माना जाता है कि जो लोग इस दिन अभ्यंग स्नान करते हैं, वे नरक में जाने से बच सकते हैं। अभ्यंग स्नान के दौरान उबटन के लिए तिल (यानी तिल) के तेल का प्रयोग करना चाहिए।


नरक चतुर्दशी पर अभ्यंग स्नान अंग्रेजी कैलेंडर पर लक्ष्मी पूजा के एक दिन पहले या उसी दिन हो सकता है। जब चतुर्दशी तिथि सूर्योदय से पहले रहती है और अमावस्या तिथि सूर्यास्त के बाद प्रबल होती है तो नरक चतुर्दशी और लक्ष्मी पूजा एक ही दिन पड़ती है। अभ्यंग स्नान हमेशा चंद्रोदय के दौरान किया जाता है लेकिन सूर्योदय से पहले जबकि चतुर्दशी तिथि प्रचलित है।


अभ्यंग स्नान के लिए हमारी मुहूर्त खिड़की चंद्रोदय और सूर्योदय के बीच है जबकि चतुर्दशी तिथि प्रबल होती है। हम अभ्यंग स्नान मुहूर्त ठीक वैसे ही प्रदान करते हैं जैसा कि धार्मिक हिंदू ग्रंथों में निर्धारित किया गया है। हम सभी अपवादों पर विचार करते हैं और अभ्यंग स्नान के लिए सर्वोत्तम तिथि और समय सूचीबद्ध करते हैं।


नरक चतुर्दशी को छोटी दिवाली, रूप चतुर्दशी और रूप चौदस के नाम से भी जाना जाता है।


अक्सर नरक चतुर्दशी को काली चौदस के समान माना जाता है। हालाँकि दोनों एक ही तिथि पर मनाए जाने वाले दो अलग-अलग त्योहार हैं और चतुर्दशी तिथि की शुरुआत और समाप्ति के समय के आधार पर लगातार दो अलग-अलग दिन पड़ सकते हैं।

 लक्ष्मी पूजा | दिवाली पूजा

लक्ष्मी पूजा व्रत और अनुष्ठान

दिवाली के दिन लोगों को सुबह जल्दी उठकर अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि देनी चाहिए और परिवार के देवताओं की पूजा करनी चाहिए। अमावस्या का दिन होने के कारण लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध भी करते हैं। परंपरागत रूप से, अधिकांश पूजा एक दिन का उपवास रखने के बाद की जाती है। इसलिए, देवी लक्ष्मी के भक्त लक्ष्मी पूजा के दिन एक दिन का उपवास रखते हैं। शाम को लक्ष्मी पूजा के बाद व्रत तोड़ा जाता है।


लक्ष्मी पूजा की तैयारी

अधिकांश हिंदू परिवार लक्ष्मी पूजा के दिन अपने घरों और कार्यालयों को गेंदे के फूलों और अशोक, आम और केले के पत्तों से सजाते हैं। घर के मुख्य द्वार के दोनों ओर मांगलिक कलश को बिना छिलके वाले नारियल से ढक कर रखना शुभ माना जाता है।


लक्ष्मी पूजा की तैयारी के लिए, एक उठे हुए मंच पर दाहिने हाथ की ओर एक लाल कपड़ा रखना चाहिए और उस पर देवी लक्ष्मी और भगवान गणेश की मूर्तियों को रेशमी कपड़े और आभूषणों से सजाकर स्थापित करना चाहिए। इसके बाद नवग्रह देवताओं को स्थापित करने के लिए उठे हुए चबूतरे पर बायीं ओर सफेद कपड़ा रखना चाहिए। सफेद कपड़े पर नवग्रह स्थापित करने के लिए अक्षत (अखंड चावल) के नौ टुकड़े तैयार करना चाहिए और लाल कपड़े पर गेहूं या गेहूं के आटे के सोलह टुकड़े तैयार करना चाहिए। लक्ष्मी पूजा विधि में वर्णित पूर्ण रीति से लक्ष्मी पूजा करनी चाहिए।


लक्ष्मी पूजा मुहूर्त

दिवाली पर, लक्ष्मी पूजा प्रदोष काल के दौरान की जानी चाहिए जो सूर्यास्त के बाद शुरू होती है और लगभग 2 घंटे 24 मिनट तक चलती है। कुछ स्रोत महानिशिता काल को भी लक्ष्मी पूजा करने का प्रस्ताव देते हैं। हमारी राय में महानिशिता काल तांत्रिक समुदाय और अभ्यास करने वाले पंडितों के लिए सबसे उपयुक्त है जो इस विशेष समय के दौरान लक्ष्मी पूजा के बारे में सबसे अच्छी तरह जानते हैं। आम लोगों के लिए हम प्रदोष काल मुहूर्त प्रस्तावित करते हैं।


हम लक्ष्मी पूजा करने के लिए चौघड़िया मुहूर्त चुनने की सलाह नहीं देते हैं क्योंकि वे मुहूर्त केवल यात्रा के लिए अच्छे हैं। लक्ष्मी पूजा के लिए सबसे अच्छा समय प्रदोष काल के दौरान होता है जब स्थिर लग्न प्रबल होता है। स्थिर का अर्थ है स्थिर अर्थात चलने योग्य नहीं। यदि स्थिर लग्न के दौरान लक्ष्मी पूजा की जाती है, तो लक्ष्मीजी आपके घर में रहेंगी; इसलिए यह समय लक्ष्मी पूजन के लिए सर्वोत्तम है। वृषभ लग्न को स्थिर माना जाता है और ज्यादातर दिवाली उत्सव के दौरान प्रदोष काल के साथ ओवरलैप होता है।


हम लक्ष्मी पूजा के लिए सटीक विंडो प्रदान करते हैं। हमारे मुहूर्त समय में प्रदोष काल और स्थिर लग्न होता है जबकि अमावस्या प्रचलित है। हम स्थान के आधार पर मुहूर्त प्रदान करते हैं, इसलिए आपको शुभ लक्ष्मी पूजा के समय को नोट करने से पहले अपने शहर का चयन करना चाहिए।


दिवाली पूजा के दौरान कई समुदाय विशेष रूप से गुजराती व्यवसायी चोपड़ा पूजन करते हैं। चोपड़ा पूजा के दौरान अगले वित्तीय वर्ष के लिए देवी लक्ष्मी का आशीर्वाद लेने के लिए नई खाता बही का उद्घाटन किया जाता है। दिवाली पूजा को दीपावली पूजा और लक्ष्मी गणेश पूजन के नाम से भी जाना जाता है।

 केदार गौरी व्रत

केदार गौरी व्रत मुख्य रूप से दक्षिणी भारतीय राज्यों विशेषकर तमिलनाडु में मनाया जाता है। इसे केदारा व्रत के नाम से भी जाना जाता है। यह दीपावली अमावस्या के दिन मनाया जाता है और दिवाली के दौरान लक्ष्मी पूजा दिवस के साथ मेल खाता है।


कुछ परिवारों में, केदार गौरी व्रत 21 दिनों तक मनाया जाता है। इक्कीस दिनों का उपवास दीपावली अमावस्या के दिन समाप्त होता है। हालांकि, ज्यादातर लोग केदार गौरी व्रत के दिन एक दिन का उपवास रखते हैं। यह भगवान शिव के भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण उपवास का दिन है।


केदार गौरी व्रत की कथा

भृंगी ऋषि भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त थे। हालाँकि, महान ऋषि को केवल भगवान शिव पर भरोसा था और उनकी शक्ति की उपेक्षा करते थे। इससे भगवान शिव की शक्ति देवी नाराज हो गईं और उन्होंने ऋषि भृंगी के शरीर से ऊर्जा निकाल दी। हटाई गई ऊर्जा और कुछ नहीं बल्कि स्वयं देवी गौरी थीं।


हटाई गई ऊर्जा भगवान शिव के शरीर का हिस्सा बनना चाहती थी। उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए केदार व्रत का पालन किया। हटाई गई शक्ति की तपस्या ने भगवान शिव को इतना प्रसन्न किया कि उन्होंने अपने शरीर का बायां हिस्सा शक्ति को हटाने के लिए दे दिया। भगवान शिव और देवी शक्ति के परिणामी रूप को अर्धनारीश्वर (अर्धनारीश्वर) के रूप में जाना जाता था।


जैसा कि देवी गौरी ने स्वयं भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए यह व्रत किया था, इस व्रत को केदार गौरी व्रत के रूप में जाना जाता है।

 दिवाली चोपड़ा पूजा

दिवाली के दौरान लक्ष्मी पूजा को गुजरात में चोपड़ा पूजा के रूप में जाना जाता है।


गुजराती समुदाय अपने उद्यमशीलता कौशल के लिए प्रसिद्ध है और पारिवारिक व्यवसायों को पीढ़ी दर पीढ़ी सफलतापूर्वक प्रबंधित किया जाता है। कॉरपोरेट घरानों के विपरीत, पारिवारिक व्यवसाय आधुनिक भारत में भी परंपराओं को कायम रखते हैं। इसलिए, अधिकांश व्यावसायिक रूप से संचालित व्यवसाय भी भारतीय परंपराओं की संस्कृति को आत्मसात करते हैं और शुभ समय के दौरान महत्वपूर्ण व्यावसायिक कार्यक्रमों की योजना बनाते हैं। चोपड़ा पूजा भी धार्मिक परंपराओं का हिस्सा है जहां एक सफल व्यवसाय को आने वाले वर्ष को लाभदायक बनाने के लिए देवताओं के आशीर्वाद की आवश्यकता होती है।


दिवाली आने वाले वर्ष को समृद्ध और लाभदायक बनाने के लिए भगवती लक्ष्मी, भगवान गणेश और मां शारदा का आशीर्वाद लेने का सबसे उपयुक्त समय है। इसलिए दिवाली चोपड़ा पूजा के दौरान नई खाता बही को पवित्र किया जाता है।


गुजरात में पारंपरिक लेखा पुस्तकों को चोपड़ा या चोपड़ा के नाम से जाना जाता है। हालाँकि, कंप्यूटर और इंटरनेट के युग में, चोपडा का महत्व हाशिए पर चला गया है क्योंकि अधिकांश व्यवसाय अपने वित्तीय प्रबंधन के लिए लैपटॉप और अकाउंटिंग सॉफ्टवेयर का उपयोग करते हैं। लेकिन यह चोपड़ा पूजा के महत्व को नहीं बदलता है क्योंकि व्यवसायी अपने लैपटॉप को चोपड़ा के रूप में उपयोग करते हैं और देवताओं के सामने इसकी पूजा करते हैं। वर्तमान समय में लैपटॉप के ऊपर चोपड़ा के स्थान पर स्वास्तिक, ओम और शुभ-लाभ खींचे जाते हैं।


गुजरात में, चौघड़िया मुहूर्त प्रचलित है और चोपड़ा पूजा करने के लिए उपयुक्त माना जाता है। लोग दीपावली के दिन शुभ चौघड़िया समय पसंद करते हैं। चौघड़िया मुहूर्त जो पूजा करने के लिए शुभ माने जाते हैं वे हैं अमृत, शुभ, लाभ और चार। चौघड़िया मुहूर्त का उपयोग करने का लाभ यह है कि ये दिन के समय के साथ-साथ रात के समय भी उपलब्ध होते हैं। हालांकि, चुनावी ज्योतिष में, विशेष रूप से प्रदोष के दौरान लग्न आधारित मुहूर्त को चौघड़िया मुहूर्त पर वरीयता दी जाती है। इसलिए, लग्न आधारित दिवाली मुहूर्त और प्रदोष समय लक्ष्मी पूजा मुहूर्त दिवाली लक्ष्मी पूजा के दौरान अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।


चोपड़ा पूजा की रस्म को मुहूर्त पूजन और चोपड़ा पूजन के नाम से भी जाना जाता है। गुजरात के अलावा, राजस्थान और महाराष्ट्र में भी हिंदू व्यापारी समुदाय द्वारा चोपड़ा पूजा की जाती है।

 

दिवाली शारदा पूजा

 दिवाली शारदा पूजा

दीपावली पूजा को गुजरात में शारदा पूजा और चोपड़ा पूजा के नाम से भी जाना जाता है। शारदा पूजा देवी सरस्वती को समर्पित है। शारदा देवी सरस्वती के नामों में से एक है, जो ज्ञान, ज्ञान और शिक्षा की हिंदू देवी हैं।


देवी लक्ष्मी, धन और समृद्धि की देवी, प्रमुख देवता हैं जिनकी पूजा दिवाली पूजा के दौरान की जाती है। हालांकि, दिवाली पूजा के दौरान देवी शारदा और भगवान गणेश को समान महत्व दिया जाता है। परंपरागत रूप से, दिवाली पूजा के दौरान तीनों देवताओं की पूजा की जाती है। दिवाली पूजा के लिए बाजार में उपलब्ध अधिकांश दीवार पोस्टर, कैलेंडर और मिट्टी की मूर्तियों ने तीनों को एक साथ रखा।


हिंदू धर्म में, यह दृढ़ता से माना जाता है कि ज्ञान और ज्ञान के बिना धन स्थायी नहीं है। देवी लक्ष्मी की कृपा और आशीर्वाद से लोग समृद्ध और धनवान बन सकते हैं। हालांकि, अगर भगवान गणेश और देवी शारदा, जो क्रमशः ज्ञान और ज्ञान प्रदान करते हैं, प्रसन्न नहीं होते हैं, तो धन और समृद्धि को बनाए और विकसित नहीं किया जा सकता है। इसलिए धन और समृद्धि को बनाए रखने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है और धन को विकसित करने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। इसलिए, अधिकांश हिंदू परिवार दिवाली पूजा के दौरान देवी लक्ष्मी के साथ देवी सरस्वती और भगवान गणेश की पूजा करते हैं।


शारदा पूजा का दिन छात्रों के लिए देवी शारदा का आशीर्वाद लेने के लिए महत्वपूर्ण है। इसलिए छात्र अपनी पढ़ाई में सफलता के लिए विशेष प्रार्थना करते हैं।


छात्रों के अलावा, शारदा पूजा का दिन उन व्यापारिक परिवारों के लिए भी महत्वपूर्ण है जो अपनी खाता बही बनाए रखते हैं। गुजरात में पारंपरिक खाता बही को चोपड़ा के नाम से जाना जाता है। शारदा पूजा के दौरान मां शारदा के साथ-साथ देवी लक्ष्मी और भगवान गणेश की उपस्थिति में नए चोपड़ा का उद्घाटन किया जाता है। यह दृढ़ता से माना जाता है कि किसी भी व्यवसाय को बढ़ने और सफल और लाभदायक बनने के लिए तीनों देवताओं के आशीर्वाद की आवश्यकता होती है।


इसलिए, शारदा पूजा दिवाली पूजा का एक अभिन्न अंग है और अक्सर गुजरात में चोपड़ा पूजन और दिवाली पूजन के साथ एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग किया जाता है।

बीज 


ऐं (सरस्वती बीज)

ऐ- सरस्वती, नाद- जगन्माता और बिंदु- दुखहरण है। इसका अर्थ है- जगन्माता सरस्वती मेरे दुख दूर करें। इस बीज मंत्र के जप से मां सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है और विद्या, कला के क्षेत्र में व्यक्ति दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता चला जाता है।


गं (गणपति बीज)

इसमें ग्- गणेश, अ- विघ्ननाशक एवं बिंदु- दुखहरण हैं। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है- विघ्ननाशक श्री गणेश मेरे दुख दूर करें। इस मंत्र के जप से दुर्भाग्य भी सौभाग्य में बदल जाता है और पैसा आने लगता है।


श्रीं (लक्ष्मी बीज)

इसमें श्- महालक्ष्मी, र्- धन संपत्ति, ई- महामाया, नाद- विश्वमाता तथा बिंदू- दुखहरण हैं। इसका अर्थ है- धन संपत्ति की अधिष्ठात्री माता लक्ष्मी मेरे दुख दूर करें। इस मंत्र के प्रयोग से सभी प्रकार के आर्थिक संकट दूर होते हैं, कर्ज से मुक्ति मिलती है और शीघ्र ही धनवान व पुत्रवान बनते हैं।


क्लीं (कृष्ण बीज)

इसमें क- श्रीकृष्ण, ल- दिव्यतेज, ई- योगेश्वर एवं बिंदु- दुखहरण है। इस बीज का अर्थ है- योगेश्वर श्रीकृष्ण मेरे दुख दूर करें। यह मंत्र साक्षात भगवान वासुदेव को प्रसन्न करने के लिए है। इससे व्यक्ति को अखंड सौभाग्य मिलता है और मृत्यु के उपरांत वह बैकुंठ में जाता है।


हं (हनुमद् बीज)

इसमें ह्- हनुमान , अ- संकटमोचन एवं बिंदु- दुखहरण है। इसका अर्थ है- संकटमोचन हनुमान मेरे दुख दूर करें। बजरंग बली की आराधना के लिए इससे बेहतर मंत्र नहीं है।


हौं (शिव बीज)

इस बीज में ह्- शिव ?, औ- सदाशिव एवं बिंदु- दुखहरण है। इस बीज का अर्थ है- भगवान शिव मेरे दुख दूर करें। इस बीज मंत्र से भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है। इससे व्यक्ति पर आने वाले सभी संकट दूर हो जाते हैं और रोग, शोक, कष्ट, निर्धनता आदि से मुक्ति मिलती है।


बीज मंत्रों 


बीज मंत्रों के नियमित जप से सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है। ऐसा व्यक्ति जीवन-मृत्यु के भय से मुक्त होकर अपना जीवन जीता है और अंत में मोक्ष गति को प्राप्त होता है।


भगवान श्री गणेश का बीज मंत्र "गं" है।

इस बीज मंत्र के नियमित जप से बुद्धि का विकास होता है और घर में धन संपदा की वृद्धि होती है।


भगवान शिव का बीज मंत्र "ह्रौं" है।

भगवान शिव के इस बीज मंत्र के जप से भोलेनाथ अतिशीघ्र प्रसन्न होते है। इस बीज मंत्र के प्रभाव से अकाल मृत्यु से रक्षा होती है व रोग आदि से छुटकारा मिलता है।


भगवान श्री विष्णु का बीज मंत्र "दं"  है।

जीवन में हर प्रकार के सुख और एश्वर्य की प्राप्ति हेतु इस बीज मंत्र द्वारा भगवान श्री विष्णु की आराधना करनी चाहिए।


भगवान श्री राम का बीज मंत्र "रीं" है।

जिसे भगवान श्री राम के मंत्र के शुरू में प्रयोग करने से मंत्र की प्रबलता और भी अधिक हो जाती है। भगवान श्री राम के बीज मंत्र को इस प्रकार से प्रयोग करें-

रीं रामाय नमः।


हनुमान जी का बीज मंत्र "हं" है।

भगवान श्री राम के परम भक्त हनुमान जी की आराधना कलयुग के समय में शीघ्र फल प्रदान करने वाली है। ऐसे में बीज मंत्र द्वारा उनकी आराधना आपके सभी दुखों को हराने में सक्षम है।


भगवान श्री कृष्ण का बीज मंत्र "क्लीं" है।

जिसका उच्चारण अकेले भी किया जा सकता है एवं भगवान श्री कृष्ण के वैदिक मंत्र के साथ भी किया जाता है।  इस बीज मंत्र का प्रयोग इस प्रकार करें-

"क्लीं कृष्णाय नमः"


शक्ति स्वरुप माँ दुर्गा का बीज मंत्र "दूं" है।                                            

जिसका अर्थ है- हे माँ, मेरे सभी दुखों को दूर कर मेरी रक्षा करो।


माँ काली का बीज मंत्र "क्रीं" है।                                               

जीवन से भय, ऊपरी बाधाओं, शत्रुओं के छूटकारा दिलाने में मां काली के बीज मंत्र द्वारा उनकी आराधना विशेष रूप से लाभ प्रदान करने वाली है। इस बीज मन्त्र का प्रयोग इस प्रकार करें-

"ॐ क्रीं कालिकाय नम:"


देवी लक्ष्मी का बीज मंत्र "श्रीं" है।

देवी लक्ष्मी को स्वभाव से चंचल माना गया है। इसलिए वे अधिक समय के लिए एक स्थान पर नहीं रूकती।  घर में धन-सम्पति की वृद्धि हेतु मां लक्ष्मी के इस बीज मंत्र द्वारा आराधना से लाभ अवश्य प्राप्त होता है।


मां सरस्वती का बीज मंत्र "ऐं" है। 

माता सरस्वती विद्या को देने वाली देवी है परीक्षा में सफलता के लिए व हर प्रकार के बौद्धिक कार्यों में सफलता हेतु माँ सरस्वती के इस बीज मंत्र का जप प्रभावी सिद्ध होता है और भी कुछ बीज मंत्र ऐसे है जो सूचक है उस परमपिता परमेश्वर के जो समस्त ब्रम्हांड के रचियता और रक्षक है। 

ये बीज मंत्र इस प्रकार है-

"ॐ"   "खं"  "कं"

ये तीनों बीज मंत्र ब्रह्म वाचक है।