Wednesday, December 8, 2021

 ललिता माता की चालीसा


॥चौपाई॥


जयति जयति जय ललिते माता। तव गुण महिमा है विख्याता॥
तू सुन्दरी, त्रिपुरेश्वरी देवी। सुर नर मुनि तेरे पद सेवी॥
तू कल्याणी कष्ट निवारिणी। तू सुख दायिनी, विपदा हारिणी॥
मोह विनाशिनी दैत्य नाशिनी। भक्त भाविनी ज्योति प्रकाशिनी॥
आदि शक्ति श्री विद्या रूपा। चक्र स्वामिनी देह अनूपा॥
ह्रदय निवासिनी-भक्त तारिणी। नाना कष्ट विपति दल हारिणी॥
दश विद्या है रुप तुम्हारा। श्री चन्द्रेश्वरी नैमिष प्यारा॥
धूमा, बगला, भैरवी, तारा। भुवनेश्वरी, कमला, विस्तारा॥
षोडशी, छिन्न्मस्ता, मातंगी। ललितेशक्ति तुम्हारी संगी॥
ललिते तुम हो ज्योतित भाला। भक्त जनों का काम संभाला॥
भारी संकट जब-जब आये। उनसे तुमने भक्त बचाए॥
जिसने कृपा तुम्हारी पायी। उसकी सब विधि से बन आयी॥
संकट दूर करो माँ भारी। भक्त जनों को आस तुम्हारी॥
त्रिपुरेश्वरी, शैलजा, भवानी। जय जय जय शिव की महारानी॥
योग सिद्दि पावें सब योगी। भोगें भोग महा सुख भोगी॥
कृपा तुम्हारी पाके माता। जीवन सुखमय है बन जाता॥
दुखियों को तुमने अपनाया। महा मूढ़ जो शरण न आया॥
तुमने जिसकी ओर निहारा। मिली उसे सम्पत्ति, सुख सारा॥
आदि शक्ति जय त्रिपुर प्यारी। महाशक्ति जय जय, भय हारी॥
कुल योगिनी, कुण्डलिनी रूपा। लीला ललिते करें अनूपा॥
महा-महेश्वरी, महा शक्ति दे। त्रिपुर-सुन्दरी सदा भक्ति दे॥
महा महा-नन्दे कल्याणी। मूकों को देती हो वाणी॥
इच्छा-ज्ञान-क्रिया का भागी। होता तब सेवा अनुरागी॥
जो ललिते तेरा गुण गावे। उसे न कोई कष्ट सतावे॥
सर्व मंगले ज्वाला-मालिनी। तुम हो सर्व शक्ति संचालिनी॥
आया माँ जो शरण तुम्हारी। विपदा हरी उसी की सारी॥
नामा कर्षिणी, चिन्ता कर्षिणी। सर्व मोहिनी सब सुख-वर्षिणी॥
महिमा तव सब जग विख्याता। तुम हो दयामयी जग माता॥
सब सौभाग्य दायिनी ललिता। तुम हो सुखदा करुणा कलिता॥
आनन्द, सुख, सम्पत्ति देती हो। कष्ट भयानक हर लेती हो॥
मन से जो जन तुमको ध्यावे। वह तुरन्त मन वांछित पावे॥
लक्ष्मी, दुर्गा तुम हो काली। तुम्हीं शारदा चक्र-कपाली॥
मूलाधार, निवासिनी जय जय। सहस्रार गामिनी माँ जय जय॥
छ: चक्रों को भेदने वाली। करती हो सबकी रखवाली॥
योगी, भोगी, क्रोधी, कामी। सब हैं सेवक सब अनुगामी॥
सबको पार लगाती हो माँ। सब पर दया दिखाती हो माँ॥
हेमावती, उमा, ब्रह्माणी। भण्डासुर कि हृदय विदारिणी॥
सर्व विपति हर, सर्वाधारे। तुमने कुटिल कुपंथी तारे॥
चन्द्र- धारिणी, नैमिश्वासिनी। कृपा करो ललिते अधनाशिनी॥
भक्त जनों को दरस दिखाओ। संशय भय सब शीघ्र मिटाओ॥
जो कोई पढ़े ललिता चालीसा। होवे सुख आनन्द अधीसा॥
जिस पर कोई संकट आवे। पाठ करे संकट मिट जावे॥
ध्यान लगा पढ़े इक्कीस बारा। पूर्ण मनोरथ होवे सारा॥
पुत्र-हीन संतति सुख पावे। निर्धन धनी बने गुण गावे॥
इस विधि पाठ करे जो कोई। दुःख बन्धन छूटे सुख होई॥
जितेन्द्र चन्द्र भारतीय बतावें। पढ़ें चालीसा तो सुख पावें॥
सबसे लघु उपाय यह जानो। सिद्ध होय मन में जो ठानो॥
ललिता करे हृदय में बासा। सिद्दि देत ललिता चालीसा॥


॥दोहा॥
ललिते माँ अब कृपा करो सिद्ध करो सब काम।
श्रद्धा से सिर नाय करे करते तुम्हें प्रणाम॥
 महाकाली चालीसा


।।  चौपाई  ।।
जयकाली कलिमलहरण, महिमा अगम अपार ।
महिष मर्दिनी कालिका , देहु अभय अपार ॥
अरि मद मान मिटावन हारी । मुण्डमाल गल सोहत प्यारी ॥
अष्टभुजी सुखदायक माता । दुष्टदलन जग में विख्याता ॥
भाल विशाल मुकुट छवि छाजै । कर में शीश शत्रु का साजै ॥
दूजे हाथ लिए मधु प्याला । हाथ तीसरे सोहत भाला ॥
चौथे खप्पर खड्ग कर पांचे । छठे त्रिशूल शत्रु बल जांचे ॥
सप्तम करदमकत असि प्यारी । शोभा अद्भुत मात तुम्हारी ॥
अष्टम कर भक्तन वर दाता । जग मनहरण रूप ये माता ॥
भक्तन में अनुरक्त भवानी । निशदिन रटें ॠषी-मुनि ज्ञानी ॥
महशक्ति अति प्रबल पुनीता । तू ही काली तू ही सीता ॥
पतित तारिणी हे जग पालक । कल्याणी पापी कुल घालक ॥
शेष सुरेश न पावत पारा । गौरी रूप धर्यो इक बारा ॥
तुम समान दाता नहिं दूजा । विधिवत करें भक्तजन पूजा ॥
रूप भयंकर जब तुम धारा । दुष्टदलन कीन्हेहु संहारा ॥
नाम अनेकन मात तुम्हारे । भक्तजनों के संकट टारे ॥
कलि के कष्ट कलेशन हरनी । भव भय मोचन मंगल करनी ॥
महिमा अगम वेद यश गावैं । नारद शारद पार न पावैं ॥
भू पर भार बढ्यौ जब भारी । तब तब तुम प्रकटीं महतारी ॥
आदि अनादि अभय वरदाता । विश्वविदित भव संकट त्राता ॥
कुसमय नाम तुम्हारौ लीन्हा । उसको सदा अभय वर दीन्हा ॥
ध्यान धरें श्रुति शेष सुरेशा । काल रूप लखि तुमरो भेषा ॥
कलुआ भैंरों संग तुम्हारे । अरि हित रूप भयानक धारे ॥
सेवक लांगुर रहत अगारी । चौसठ जोगन आज्ञाकारी ॥
त्रेता में रघुवर हित आई । दशकंधर की सैन नसाई ॥
खेला रण का खेल निराला । भरा मांस-मज्जा से प्याला ॥
रौद्र रूप लखि दानव भागे । कियौ गवन भवन निज त्यागे ॥
तब ऐसौ तामस चढ़ आयो । स्वजन विजन को भेद भुलायो ॥
ये बालक लखि शंकर आए । राह रोक चरनन में धाए ॥
तब मुख जीभ निकर जो आई । यही रूप प्रचलित है माई ॥
बाढ्यो महिषासुर मद भारी । पीड़ित किए सकल नर-नारी ॥
करूण पुकार सुनी भक्तन की । पीर मिटावन हित जन-जन की ॥
तब प्रगटी निज सैन समेता । नाम पड़ा मां महिष विजेता ॥
शुंभ निशुंभ हने छन माहीं । तुम सम जग दूसर कोउ नाहीं ॥
मान मथनहारी खल दल के । सदा सहायक भक्त विकल के ॥
दीन विहीन करैं नित सेवा । पावैं मनवांछित फल मेवा ॥
संकट में जो सुमिरन करहीं । उनके कष्ट मातु तुम हरहीं ॥
प्रेम सहित जो कीरति गावैं । भव बन्धन सों मुक्ती पावैं ॥
काली चालीसा जो पढ़हीं । स्वर्गलोक बिनु बंधन चढ़हीं ॥
दया दृष्टि हेरौ जगदम्बा । केहि कारण मां कियौ विलम्बा ॥
करहु मातु भक्तन रखवाली । जयति जयति काली कंकाली ॥
सेवक दीन अनाथ अनारी । भक्तिभाव युति शरण तुम्हारी ॥


॥  दोहा  ॥
प्रेम सहित जो करे, काली चालीसा पाठ ।
तिनकी पूरन कामना, होय सकल जग ठाठ ॥
 श्री महावीर तीर्थंकर चालीसा


|| दोहा ||

 
शीश नवा अरिहन्त को, सिद्धन करूँ प्रणाम।
उपाध्याय आचार्य का, ले सुखकारी नाम।
सर्व साधु और सरस्वती, जिन मन्दिर सुखकार।
महावीर भगवान को, मन-मन्दिर में धार।


|| चौपाई ||
जय महावीर दयालु स्वामी, वीर प्रभु तुम जग में नामी।
वर्धमान है नाम तुम्हारा, लगे हृदय को प्यारा प्यारा।
शांति छवि और मोहनी मूरत, शान हँसीली सोहनी सूरत।
तुमने वेश दिगम्बर धारा, कर्म-शत्रु भी तुम से हारा।
क्रोध मान अरु लोभ भगाया, महा-मोह तुमसे डर खाया।
तू सर्वज्ञ सर्व का ज्ञाता, तुझको दुनिया से क्या नाता।
तुझमें नहीं राग और द्वेष, वीर रण राग तू हितोपदेश।
तेरा नाम जगत में सच्चा, जिसको जाने बच्चा बच्चा।
भूत प्रेत तुम से भय खावें, व्यन्तर राक्षस सब भग जावें।
महा व्याध मारी न सतावे, महा विकराल काल डर खावे।
काला नाग होय फन धारी, या हो शेर भयंकर भारी।
ना हो कोई बचाने वाला, स्वामी तुम्हीं करो प्रतिपाला।
अग्नि दावानल सुलग रही हो, तेज हवा से भड़क रही हो।
नाम तुम्हारा सब दुख खोवे, आग एकदम ठण्डी होवे।
हिंसामय था भारत सारा, तब तुमने कीना निस्तारा।
जनम लिया कुण्डलपुर नगरी, हुई सुखी तब प्रजा सगरी।
सिद्धारथ जी पिता तुम्हारे, त्रिशला के आँखों के तारे।
छोड़ सभी झंझट संसारी, स्वामी हुए बाल-ब्रह्मचारी।
पंचम काल महा-दुखदाई, चाँदनपुर महिमा दिखलाई।
टीले में अतिशय दिखलाया, एक गाय का दूध गिराया।
सोच हुआ मन में ग्वाले के, पहुँचा एक फावड़ा लेके।
सारा टीला खोद बगाया, तब तुमने दर्शन दिखलाया।
जोधराज को दुख ने घेरा, उसने नाम जपा जब तेरा।
ठंडा हुआ तोप का गोला, तब सब ने जयकारा बोला।
मंत्री ने मन्दिर बनवाया, राजा ने भी द्रव्य लगाया।
बड़ी धर्मशाला बनवाई, तुमको लाने को ठहराई।
तुमने तोड़ी बीसों गाड़ी, पहिया खसका नहीं अगाड़ी।
ग्वाले ने जो हाथ लगाया, फिर तो रथ चलता ही पाया।
पहिले दिन बैशाख बदी के, रथ जाता है तीर नदी के।
मीना गूजर सब ही आते, नाच-कूद सब चित उमगाते।
स्वामी तुमने प्रेम निभाया, ग्वाले का बहु मान बढ़ाया।
हाथ लगे ग्वाले का जब ही, स्वामी रथ चलता है तब ही।
मेरी है टूटी सी नैया, तुम बिन कोई नहीं खिवैया।
मुझ पर स्वामी जरा कृपा कर, मैं हूँ प्रभु तुम्हारा चाकर।
तुम से मैं अरु कछु नहीं चाहूँ, जन्म-जन्म तेरे दर्शन पाऊँ।
चालीसे को चन्द्र बनावे, बीर प्रभु को शीश नवावे।


|| सोरठा ||
नित चालीसहि बार, बाठ करे चालीस दिन।
खेय सुगन्ध अपार, वर्धमान के सामने।।
होय कुबेर समान, जन्म दरिद्री होय जो।
जिसके नहिं संतान, नाम वंश जग में चले।।
 श्री परशुराम चालीसा


|| दोहा ||
श्री गुरु चरण सरोज छवि, निज मन मन्दिर धारि।
सुमरि गजानन शारदा, गहि आशिष त्रिपुरारि।।
बुद्धिहीन जन जानिये, अवगुणों का भण्डार।
बरणौं परशुराम सुयश, निज मति के अनुसार।।


|| चौपाई ||
जय प्रभु परशुराम सुख सागर, जय मुनीश गुण ज्ञान दिवाकर।
भृगुकुल मुकुट बिकट रणधीरा, क्षत्रिय तेज मुख संत शरीरा।
जमदग्नी सुत रेणुका जाया, तेज प्रताप सकल जग छाया।
मास बैसाख सित पच्छ उदारा, तृतीया पुनर्वसु मनुहारा।
प्रहर प्रथम निशा शीत न घामा, तिथि प्रदोष व्यापि सुखधामा।
तब ऋषि कुटीर रुदन शिशु कीन्हा, रेणुका कोखि जनम हरि लीन्हा।
निज घर उच्च ग्रह छः ठाढ़े, मिथुन राशि राहु सुख गाढ़े।
तेज-ज्ञान मिल नर तनु धारा, जमदग्नी घर ब्रह्म अवतारा।
धरा राम शिशु पावन नामा, नाम जपत लग लह विश्रामा।
भाल त्रिपुण्ड जटा सिर सुन्दर, कांधे मूंज जनेऊ मनहर।
मंजु मेखला कठि मृगछाला, रुद्र माला बर वक्ष विशाला।
पीत बसन सुन्दर तुन सोहें, कंध तुरीण धनुष मन मोहें।
वेद-पुराण-श्रुति-स्मृति ज्ञाता, क्रोध रूप तुम जग विख्याता।
दायें हाथ श्रीपरसु उठावा, वेद-संहिता बायें सुहावा।
विद्यावान गुण ज्ञान अपारा, शास्त्र-शस्त्र दोउ पर अधिकारा।
भुवन चारिदस अरु नवखंडा, चहुं दिशि सुयश प्रताप प्रचंडा।
एक बार गणपति के संगा, जूझे भृगुकुल कमल पतंगा।
दांत तोड़ रण कीन्ह विरामा, एक दन्द गणपति भयो नामा।
कार्तवीर्य अर्जुन भूपाला, सहस्रबाहु दुर्जन विकराला।
सुरगऊ लखि जमदग्नी पाही, रहिहहुं निज घर ठानि मन माहीं।
मिली न मांगि तब कीन्ह लड़ाई, भयो पराजित जगत हंसाई।
तन खल हृदय भई रिस गाढ़ी, रिपुता मुनि सौं अतिसय बाढ़ी।
ऋषिवर रहे ध्यान लवलीना, निन्ह पर शक्तिघात नृप कीन्हा।
लगत शक्ति जमदग्नी निपाता, मनहुं क्षत्रिकुल बाम विधाता।
पितु-बध मातु-रुदन सुनि भारा, भा अति क्रोध मन शोक अपारा।
कर गहि तीक्षण पराु कराला, दुष्ट हनन कीन्हेउ तत्काला।
क्षत्रिय रुधिर पितु तर्पण कीन्हा, पितु-बध प्रतिशोध सुत लीन्हा।
इक्कीस बार भू क्षत्रिय बिहीनी, छीन धरा बिप्रन्ह कहँ दीनी।
जुग त्रेता कर चरित सुहाई, शिव-धनु भंग कीन्ह रघुराई।
गुरु धनु भंजक रिपु करि जाना, तब समूल नाश ताहि ठाना।
कर जोरि तब राम रघुराई, विनय कीन्ही पुनि शक्ति दिखाई।
भीष्म द्रोण कर्ण बलवन्ता, भये शिष्य द्वापर महँ अनन्ता।
शस्त्र विद्या देह सुयश कमावा, गुरु प्रताप दिगन्त फिरावा।
चारों युग तव महिमा गाई, सुर मुनि मनुज दनुज समुदाई।
दे कश्यप सों संपदा भाई, तप कीन्हा महेन्द्र गिरि जाई।
अब लौं लीन समाधि नाथा, सकल लोक नावइ नित माथा।
चारों वर्ण एक सम जाना, समदर्शी प्रभु तुम भगवाना।
लहहिं चारि फल शरण तुम्हारी, देव दनुज नर भूप भिखारी।
जो यह पढ़ै श्री परशु चालीसा, तिन्ह अनुकूल सदा गौरीसा।
पूर्णेन्दु निसि बासर स्वामी, बसहुं हृदय प्रभु अन्तरयामी।


|| दोहा ||
परशुराम को चारु चरित, मेटत सकल अज्ञान।
शरण पड़े को देत प्रभु, सदा सुयश सम्मान।।
|| श्लोक ||
भृगुदेव कुलं भानुं, सहस्रबाहुर्मर्दनम्।
रेणुका नयनानंदं, परशुं वन्दे विप्रधनम्।।
 श्री पितर चालीसा


|| दोहा ||
हे पितरेश्वर आपको दे दियो आशीर्वाद,
चरणाशीश नवा दियो रखदो सिर पर हाथ।
सबसे पहले गणपत पाछे घर का देव मनावा जी।
हे पितरेश्वर दया राखियो, करियो मन की चाया जी।।


|| चौपाई ||
पितरेश्वर करो मार्ग उजागर, चरण रज की मुक्ति सागर।
परम उपकार पित्तरेश्वर कीन्हा, मनुष्य योणि में जन्म दीन्हा।
मातृ-पितृ देव मन जो भावे, सोई अमित जीवन फल पावे।
जै-जै-जै पित्तर जी साईं, पितृ ऋण बिन मुक्ति नाहिं।
चारों ओर प्रताप तुम्हारा, संकट में तेरा ही सहारा।
नारायण आधार सृष्टि का, पित्तरजी अंश उसी दृष्टि का।
प्रथम पूजन प्रभु आज्ञा सुनाते, भाग्य द्वार आप ही खुलवाते।
झुंझनू में दरबार है साजे, सब देवों संग आप विराजे।
प्रसन्न होय मनवांछित फल दीन्हा, कुपित होय बुद्धि हर लीन्हा।
पित्तर महिमा सबसे न्यारी, जिसका गुणगावे नर नारी।
तीन मण्ड में आप बिराजे, बसु रुद्र आदित्य में साजे।
नाथ सकल संपदा तुम्हारी, मैं सेवक समेत सुत नारी।
छप्पन भोग नहीं हैं भाते, शुद्ध जल से ही तृप्त हो जाते।
तुम्हारे भजन परम हितकारी, छोटे बड़े सभी अधिकारी।
भानु उदय संग आप पुजावै, पांच अँजुलि जल रिझावे।
ध्वज पताका मण्ड पे है साजे, अखण्ड ज्योति में आप विराजे।
सदियों पुरानी ज्योति तुम्हारी, धन्य हुई जन्म भूमि हमारी।
शहीद हमारे यहाँ पुजाते, मातृ भक्ति संदेश सुनाते।
जगत पित्तरो सिद्धान्त हमारा, धर्म जाति का नहीं है नारा।
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब पूजे पित्तर भाई।
हिन्दू वंश वृक्ष है हमारा, जान से ज्यादा हमको प्यारा।
गंगा ये मरुप्रदेश की, पितृ तर्पण अनिवार्य परिवेश की।
बन्धु छोड़ ना इनके चरणाँ, इन्हीं की कृपा से मिले प्रभु शरणा।
चौदस को जागरण करवाते, अमावस को हम धोक लगाते।
जात जडूला सभी मनाते, नान्दीमुख श्राद्ध सभी करवाते।
धन्य जन्म भूमि का वो फूल है, जिसे पितृ मण्डल की मिली धूल है।
श्री पित्तर जी भक्त हितकारी, सुन लीजे प्रभु अरज हमारी।
निशिदिन ध्यान धरे जो कोई, ता सम भक्त और नहीं कोई।
तुम अनाथ के नाथ सहाई, दीनन के हो तुम सदा सहाई।
चारिक वेद प्रभु के साखी, तुम भक्तन की लज्जा राखी।
नाम तुम्हारो लेत जो कोई, ता सम धन्य और नहीं कोई।
जो तुम्हारे नित पाँव पलोटत, नवों सिद्धि चरणा में लोटत।
सिद्धि तुम्हारी सब मंगलकारी, जो तुम पे जावे बलिहारी।
जो तुम्हारे चरणा चित्त लावे, ताकी मुक्ति अवसी हो जावे।
सत्य भजन तुम्हारो जो गावे, सो निश्चय चारों फल पावे।
तुमहिं देव कुलदेव हमारे, तुम्हीं गुरुदेव प्राण से प्यारे।
सत्य आस मन में जो होई, मनवांछित फल पावें सोई।
तुम्हरी महिमा बुद्धि बड़ाई, शेष सहस्र मुख सके न गाई।
मैं अतिदीन मलीन दुखारी, करहुं कौन विधि विनय तुम्हारी।
अब पित्तर जी दया दीन पर कीजै, अपनी भक्ति शक्ति कछु दीजै।


|| दोहा ||
पित्तरों को स्थान दो, तीरथ और स्वयं ग्राम।
श्रद्धा सुमन चढ़ें वहां, पूरण हो सब काम।
झुंझनू धाम विराजे हैं, पित्तर हमारे महान।
दर्शन से जीवन सफल हो, पूजे सकल जहान।।
जीवन सफल जो चाहिए, चले झुंझनू धाम।
पित्तर चरण की धूल ले, हो जीवन सफल महान।।

 आंवला नवमी की व्रत कथा



– आंवला नवमी की व्रत कथा: कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को आंवला नवमी मनाई जाती है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को आमला (आंवला) नवमी (आंवला वृक्ष की पूजा परिक्रमा), आरोग्य नवमी, अक्षय नवमी, कूष्मांड नवमी के नाम से जाना जाता है। आंवला नवमी को अक्षय नवमी के नाम से भी जाना जाता है। आज के दिन सहपरिवार आंवले के पेड़ की आराधना की जाती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को जो कोई आंवले के पेड़ का पूजन परिवार सहित करता है उसे आरोग्य जीवन और सुख-सौभाग्य प्राप्त होता है। मान्यता के अनुसार, इस दिन किया गया तप, जप, दान इत्यादि व्यक्ति को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त करता है। आंवला नवमी की पूजा के दौरान इससे जुड़ी इस कथा को जरूर पढ़ना या सुनना चाहिए। तभी इस पूजा का अक्षय फल भक्तों को प्राप्त होता है।  कहा जाता है कि अगर इस दिन कोई भी शुभ काम किया जाए तो उससे अक्षय फल की प्राप्ति होती है। पूजा के दौरान आंवला नवमी की कथा भी सुनी जाती है। आइए पढ़ते हैं आंवला नवमी की कथा।


आंवला नवमी की कहानी व्रत के समय कही और सुनी जाती है। किसी भी व्रत को रखने के दौरान हमें उस व्रत की कहानी और उसके महत्व का ज्ञान होना जरुरी होता है। तो आइए आज आप भी जानें अक्षय नवमी की व्रत कथा के बारे में।




आंवला नवमी की पूजा विधि | 

महिलाओं को इस दिन सुबह जल्दी स्नान करके आंवले के पेड़ के पास जाना चाहिए और उसके आस-पास सफाई करके पेड़ की जड़ में साफ पानी चढ़ाना चाहिए। इसके बाद पेड़ की जड़ में दूध चढ़ाना चाहिए। चढ़ाया हुआ थोड़ा दूध और वो मिट्टी सिर पर लगानी चाहिए। पूजन सामग्रियों से पेड़ की पूजा करें और उसके तने पर कच्चा सूत या मौली 8 परिक्रमा करते हुए लपेटें। कहीं-कहीं 108 परिक्रमा भी की जाती है। पूजन के बाद परिवार और संतान की सुख-समृद्धि की कामना करके पेड़ के नीचे बैठकर परिवार व मित्रों के साथ भोजन ग्रहण करना चाहिए।



आंवला नवमी का धार्मिक महत्व | 

आंवला नवमी के दिन ही भगवान विष्णु ने कुष्माण्डक नामक दैत्य को मारा था। आंवला नवमी पर ही भगवान श्रीकृष्ण ने कंस का वध करने से पहले तीन वनों की परिक्रमा की थी। आंवला नवमी पर बहुत से लोग मथुरा- वृंदावन की परिक्रमा करते हैं। संतान प्राप्ति के लिए की गई पूजा पर व्रत भी रखा जाता है और इस दिन रात में भगवान विष्णु को याद करते हुए जगराता किया जाता है


आंवला नवमी की कथा | 

आंवला नवमी पर आंवले के पेड़ के नीचे पूजा और भोजन करने की प्रथा की शुरुआत माता लक्ष्मी ने की थी। कथा के अनुसार, एक बार मां लक्ष्मी पृथ्वी पर घूमने के लिए आईं। धरती पर आकर मां लक्ष्मी सोचने लगीं कि भगवान विष्णु और शिवजी की पूजा एक साथ कैसे की जा सकती है। तभी उन्हें याद आया कि तुलसी और बेल के गुण आंवले में पाए जाते हैं। तुलसी भगवान विष्णु को और बेल शिवजी को प्रिय है।



उसके बाद मां लक्ष्मी ने आंवले के पेड़ की पूजा करने का निश्चय किया। मां लक्ष्मी की भक्ति और पूजा से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु और शिवजी साक्षात प्रकट हुए। माता लक्ष्मी ने आंवले के पेड़ के नीचे भोजन तैयार करके भगवान विष्णु व शिवजी को भोजन कराया और उसके बाद उन्होंने खुद भी वहीं भोजन ग्रहण किया। मान्यताओं के अनुसार, आंवला नवमी के दिन अगर कोई महिला आंवले के पेड़ की पूजा कर उसके नीचे बैठकर भोजन ग्रहण करती है, तो भगवान विष्णु और शिवजी उसकी सभी इच्छाएं पूर्ण करते हैं। इस दिन महिलाएं अपनी संतना की दीर्घायु तथा अच्छे स्वास्थ्य लेकर कामना करती हैं।


आंवला नवमी की कथा | 

एक राज्य में आंवलया नाम का राजा था। राजा ने यह प्रण लिया था कि वह अपनी प्रजा में रोजाना सवा मन आंवला दान करेगा। उसके बाद ही खाना ग्रहण करेगा। राजा अपने प्रण के अनुसार ऐसा ही करता था। लेकिन उसके बेटे और बहु को यह बात पसंद नहीं थी। इसलिए एक दिन उसके बेटे-बहु ने सोचा कि राजा इतने सारे आंवले रोजाना दान करते हैं, इस प्रकार तो एक दिन सारा खजाना खाली हो जायेगा। एक दिन बेटे ने राजा से कहा की उसे इस तरह दान करना बंद कर देना चाहिए। राजकुमार की बात सुनकर राजा को बहुत दुःख हुआ और राजा ने रानी के साथ महल का त्याग कर दिया।  फिर क्या था, राजा आंवला दान नहीं कर पाए और अपने प्रण के कारण कुछ खाया नहीं। जब भूखे प्यासे सात दिन हो गए तब भगवान को उनके ऊपर दया आ गई।

इसलिए भगवान ने, राजा के लिए जंगल में ही महल, राज्य और बाग-बगीचे सब बना दिए और ढेरों आंवले के पेड़ लगा दिए। जब राजा रानी ने यह देखा कि जंगल में उनके राज्य से भी दोगुना राज्य बसा हुआ है। राजा, रानी से कहने लगे रानी देख कहते हैं, कभी भी सत्य का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। आओ नहा धोकर आंवला दान करें और भोजन करें। राजा-रानी ने आंवले दान करके खाना खाया और खुशी-खुशी नए महल में रहने लगे। उधर आंवला देवता का अपमान करने व माता-पिता से बुरा व्यवहार करने के कारण राजकुमार के बुरे दिन आ गए।


उसका राज्य शत्रुओं ने छीन लिया। वह दाने-दाने को मोहताज हो गया और काम ढूंढते हुए अपने पिताजी के राज्य में आ पहुंचा। उसकी हालात इतनी बिगड़ी हुई थी कि पिता ने उन्हें बिना पहचाने हुए काम पर रख लिया। बेटे-बहु सोच भी नहीं सकते कि उनके माता-पिता इतने बड़े राज्य के मालिक भी हो सकते हैं सो उन्होंने भी अपने माता-पिता को नहीं पहचाना। एक-दिन बहु ने सास के बाल गूंथते समय उनकी पीठ पर मस्सा देखा। उसे यह सोचकर रोना आने लगा कि ऐसा मस्सा मेरी सास के भी था। हमने ये सोचकर उन्हें आंवले दान करने से रोका था कि हमारा धन नष्ट हो जाएगा। आज वे लोग न जाने कहां होगे ?


यह सोचकर बहु को रोना आने लगा और आंसू टपक टपक कर सास की पीठ पर गिरने लगे। रानी ने तुरंत पलट कर देखा और पूछा कि, तू क्यों रो रही है? उसने बताया आपकी पीठ जैसा मस्सा मेरी सास की पीठ पर भी था। हमने उन्हें आंवले दान करने से मना कर दिया था इसलिए वे घर छोड़कर कहीं चले गए। तब रानी ने उन्हें पहचान लिया। सारा हाल पूछा और अपना हाल बताया। अपने बेटे-बहू को समझाया कि दान करने से धन कम नहीं होता बल्कि बढ़ता है। बेटे-बहु भी अब सुख से राजा-रानी के साथ रहने लगे।


आंवला नवमी की कथा: 

आंवला नवमी के दिन एक सेठ ब्राह्मणों को आंवले के पेड़ के नीचे बैठाकर भोजन कराया करते थे। साथ ही उन्हें सोना सदान किया करते थे। यह सब देख सेठ के पुत्रों को अच्छा नहीं लगता था। यह देख वो अपने पिता से बहुत झगड़ा करते थे। रोज-रोज की लड़ाई से तंग आकर वो दूसरे गांव में रहने चला गया। जीवनयापन के लिए उसने वहां एक दुकान लगाई। उसी दुकान के आगे सेठ ने एक आंवले का पेड़ लगाया। कृपा कुछ ऐसी हुई की दुकान खूब चलने लगी।


यहां भी उसने अपना नियम नहीं छोड़ा। वह आंवला नवमी का व्रत-पूजा करता था और ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देता था। वहीं, दूसरी ओर सेठ के पुत्रों का व्यापार ठप हो गया। उनके बेटों को समझ आने लगा कि वो अपने पिता के भाग्य से ही खाते थे। अपनी गलती समझकर वे अपने पिता के पास गए और अपनी गलती की माफी मांगने लगे। फिर पिता के कहे अनुसार उन्होंने आंवले के पेड़ की पूजा करनी शुरू की और दान करने लगे। इसके प्रभाव से सेठ के बेटों के घर पहले की तरह खुशहाली आ गई।



अक्षय नवमी/ आंवला नवमी / कूष्मांडा नवमी की व्रत कथा -4

काशी नगर में एक नि:संतान धर्मात्मा और दानी वैश्य रहता था. एक दिन वैश्य की पत्नी से एक पड़ोसन बोली यदि तुम किसी पराए बच्चे की बलि भैरव के नाम से चढ़ा दो तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा. यह बात जब वैश्य को पता चली तो उससे मना कर दिया लेकिन उसकी पत्नी मौके की तलाश में लगी रही. एक दिन एक कन्या को उसने कुएं में गिराकर भैरो देवता के नाम पर बलि दे दी. इस हत्या का परिणाम विपरीत हुआ. लाभ की बजाय उसके पूरे बदन में कोढ़ हो गया और लड़की की प्रेतात्मा उसे सताने लगी. वैश्य के पूछने पर उसकी पत्नी ने सारी बात बता दी. इस पर वैश्य कहना गोवध, ब्राह्मण वध तथा बाल वध करने वाले के लिए इस संसार में कहीं जगह नहीं है, इसलिए तू गंगातट पर जाकर भगवान का भजन कर गंगा स्नान कर तभी तू इस कष्ट से मुक्ति पा सकती है.


वैश्य की पत्नी गंगा किनारे रहने लगी. कुछ दिन बाद गंगा माता वृद्ध महिला का वेष धारण कर उसके पास आयीं और बोलीं यदि तुम मथुरा जाकर कार्तिक नवमी का व्रत तथा आंवला वृक्ष की परिक्रमा और पूजा करोगी तो ऐसा करने से तेरा यह कोढ़ दूर हो जाएगा. वृद्ध महिला की बात मानकर वैश्य की पत्नी अपने पति से आज्ञा लेकर मथुरा जाकर विधिपूर्वक आंवला का व्रत करने लगी. ऐसा करने से वह भगवान की कृपा से दिव्य शरीर वाली हो गई तथा उसे पुत्र की प्राप्ति भी हुई.


 गोपाष्टमी व्रत कथा


गोपाष्टमी व्रत कथा –  : कार्तिक शुक्ल पक्ष अष्टमी को गोपाष्टमी का त्यौहार मनाया जाता है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने गौ चारण लीला शुरू की थी जिसके लिए गौ माता की सेवा की जाती है। इस दिन बछड़े सहित गाय का पूजन करने का विधान है। आज हम आपको गौपाष्टमी की कथा सुनाने वाले हैं। गोपाष्टमी की कथानुसार इस दिन गौ माता की पूजा की जाती है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने गौ चारण लीला शुरू की थी। माना जाता है कि गोपाष्टमी के दिन पूरे मन से भक्ति के साथ पूजा पाठ करने से भक्तों को इच्छित फल की प्राप्ति होती है. पूजा पाठ के बाद शाम को व्रत कथा पढ़ी जाती है. व्रत कथा के बिना कोई भी व्रत अधूरा माना जाता है और पूजा का फल भी नहीं मिलता. आइए जानते हैं गोपाष्टमी की व्रत कथा



गोपाष्टमी का महत्व | 

गौ और ग्वालों की पूजा को समर्पित गोपाष्टमी आज मनाई जा रही है। हमारे हिन्दू धर्म तथा शास्त्रों में गाय को सभी प्राणियों की माता कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि गाय की देह में समस्त देवी-देवता वास करते है। माना जाता है कि जो व्यक्ति सुबह स्नान कर गौ माता को स्पर्श करता है, वह सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है। गायों का समूह जहां बैठकर आराम से सांस लेता है उस जगह से सभी पाप खत्म हो जाते हैं। गाय को चारा खिलाने पर बहुत पुण्य मिलता है। यह पुण्य हवन या यज्ञ करने के समान होता है। जिस घर में सभी सदस्यों के भोजन करने से पहले गाय के लिए खाना निकाला जाता है, उस परिवार में कभी भी अन्न-धन की कमी नहीं होती है।


गोपाष्टमी पूजन विधि | 

इस दिन बछड़े सहित गाय का पूजन करने का विधान है। इस दिन प्रातः काल उठ कर नित्य कर्म से निवृत हो कर स्नान करते है, प्रातः काल ही गौओं और उनके बछड़ों को भी स्नान कराया जाता है। गौ माता के अंगों में मेहंदी, रोली हल्दी आदि के थापे लगाए जाते हैं, गायों को सजाया जाता है, प्रातः काल ही धूप, दीप, पुष्प, अक्षत, रोली, गुड, जलेबी, वस्त्र और जल से गौ माता की पूजा की जाती है और आरती उतरी जाती है। पूजन के बाद गौ ग्रास निकाला जाता है, गौ माता की परिक्रमा की जाती है, परिक्रमा के बाद गौओं के साथ कुछ दूर तक चला जाता है।


गोपाष्टमी व्रत कथा | 

प्राचीन काल में एक बार बाल गोपाल (भगवान कृष्ण) जब 6 साल के थे तो मां यशोदा से कहने लगे कि मां अब मैं बड़ा हो गया हूं और अब मैं बछड़े चराने नहीं जाऊंगा। मैं गौ माता के साथ जाऊंगा। इसपर यशोदा ने बात नन्द बाबा पर टालते हुए कथा कि अच्छा ठीक है लेकिन एक बार बाबा से पूछ तो लो। इसपर भगवान कृष्ण जाकर नंद बाबा से कहने लगे कि अब मैं बछड़े नहीं बल्कि गाय चराने जाया करूंगा। नंद बाबा ने उन्हें समझाने की कोशिश की लेकिन बाल गोपाल के हठ के आगे उनकी एक न चली। फिर नंद बाबा ने कृष्ण से कहा कि ठीक है तो पहले जाकर पंडित जी को बुला लाओ ताकि उनसे गौ चारण के लिए शुभ मुहूर्त का पता लगाया जा सके।



ये सुनकर बाल गोपाल दौड़ते हुए पंडित जी के पास पहुंचे और एक सांस में उनसे कह डाला कि- पंडित जी, आपको नंद बाबा ने गौ चारण का मुहूर्त देखने के लिए बुलाया है। आप आज ही शुभ मुहूर्त बताना तो मैं आपको खूब ढेर सारा मक्खन दूंगा। पंडित जी नंद बाबा के पास पहुंचे और पंचांग देखकर उसी दिन को गौ चारण के लिए शुभ मुहूर्त बता दिया और साथ ही यह भी कह दिया कि आज के बाद से एक साल तक गौ चारण के लिए कोई भी मुहूर्त शुभ नहीं है।


नंद बाबा ने पंडित जी की बात पर विचार करते हुए बाल गोपाल को गौ चारण की आज्ञा दे दी। भगवान दिन उसी दिन से गाय चराने जाने लगे। जिस दिन से बाल गोपाल ने गौ चारण आरंभ किया था उस दिन कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी थी। भागवान द्वारा उस दिन गाय चराना आरंभ करने की वजह से इसे गोपाष्टमी कहा गया।

 सोलह सोमवार व्रत कथा 

एक समय श्री महादेव जी पार्वती जी के साथ भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में अमरावती नगरी में आये, वहां के राजा ने एक शिवजी का मंदिर बनवाया था। शंकर जी वहीं ठहर गये। एक दिन पार्वती जी शिवजी से बोली- नाथ! आइये आज चौसर खेलें। खेल प्रारंभ हुआ, उसी समय पुजारी पूजा करने को आये। पार्वती जी ने पूछा- पुजारी जी! बताइये जीत किसकी होगी? वह बाले शंकर जी की और अन्त में जीत पार्वती जी की हुई। पार्वती ने मिथ्या भाषण के कारण पुजारी जी को कोढ़ी होने का शाप दिया, पुजारी जी कोढ़ी हो गये।

 

कुछ काल बात अप्सराएं पूजन के लिए आई और पुजारी से कोढी होने का कारण पूछा- पुजारी जी ने सब बातें बतला दीं। अप्सराएं बोली- पुजारी जी! तुम सोलह सोमवार का व्रत करो। महादेव जी तुम्हारा कष्ट दूर करेंगे। पुजारी जी ने उत्सुकता से व्रत की विधि पूछी। अप्सरा बोली- सोमवार को व्रत करें, संध्योपासनोपरान्त आधा सेर गेहूं के आटे का चूरमा तथा मिट्‌टी की तीन मूर्ति बनावें और घी, गुड , दीप, नैवेद्य, बेलपत्रादि से पूजन करें। बाद में चूरमा भगवान शंकर को अर्पण कर, प्रसादी समझ वितरित कर प्रसाद लें। इस विधि से सोलह सोमवार कर सत्रहवें सोमवार को पांच सेर गेहूं के आटे की बाटी का चूरमा बनाकर भोग लगाकर बांट दें फिर सकुटुम्ब प्रसाद ग्रहण करें। ऐसा करने से शिवजी तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करेंगे। यह कहकर अप्सरा स्वर्ग को चली गई।

 

पुजारी जी यथाविधि व्रत कर रोग मुक्त हुए और पूजन करने लगे। कुछ दिन बाद शिव पार्वती पुनः आये पुजारी जी को कुशल पूर्वक देख पार्वती ने रोग मुक्त होने का कारण पूछा। पुजारी के कथनानुसार पार्वती ने व्रत किया, फलस्वरूप अप्रसन्न कार्तिकेय जी माता के आज्ञाकारी हुए। कार्तिकेय जी ने भी पार्वती से पूछा कि क्या कारण है कि मेरा मन आपके चरणों में लगा? पार्वती ने वही व्रत बतलाया। कार्तिकेय जी ने भी व्रत किया, फलस्वरूप बिछुड़ा हुआ मित्र मिला। उसने भी कारण पूछा। बताने पर विवाह की इच्छा से यथाविधि व्रत किया। फलतः वह विदेश गया, वहां राजा की कन्या का स्वयंवर था। राजा का प्रण था कि हथिनी जिसको माला पहनायेगी उसी के साथ पुत्री का विवाह होगा। यह ब्राह्‌मण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से एक ओर जा बैठा। हथिनी ने माला इसी ब्राह्‌मण कुमार को पहनाई। धूमधाम से विवाह हुआ तत्पश्चात दोनों सुख से रहने लगे। एक दिन राजकन्या ने पूछा- नाथ! आपने कौन सा पुण्य किया जिससे राजकुमारों को छोड हथिनी ने आपका वरण किया। ब्राह्‌मण ने सोलह सोमवार का व्रत सविधि बताया। राज-कन्या ने सत्पुत्र प्राप्ति के लिए व्रत किया और सर्वगुण सम्पन्न पुत्र प्राप्त किया। बड़े होने पर पुत्र ने पूछा- माता जी! किस पुण्य से मेरी प्राप्ति आपको हुई? राजकन्या ने सविधि सोलह सोमवार व्रत बतलाया। पुत्र राज्य की कामना से व्रत करने लगा। उसी समय राजा के दूतों ने आकर उसे राज्य-कन्या के लिए वरण किया। आनन्द से विवाह सम्पन्न हुआ और राजा के दिवंगत होने पर ब्राह्‌मण कुमार को गद्‌दी मिली। फिर वह इस व्रत को करता रहा। एक दिन इसने अपनी पत्नी से पूजन सामग्री शिवालय में ले चलने को कहा, परन्तु उसने दासियों द्वारा भिजवा दी। जब राजा ने पूजन समाप्त किया जो आकाशवाणी हुई कि इस पत्नी को निकाल दे, नहीं तो वह तेरा सत्यानाश कर देगी। प्रभु की आज्ञा मान उसने रानी को निकाल दिया।

 

रानी भाग्य को कोसती हुई नगर में बुढ़िया के पास गई। दीन देखकर बुढि या ने इसके सिर पर सूत की पोटली रख बाजार भेजा, रास्ते में आंधी आई, पोटली उड गई। बुढि या ने फटकार कर भगा दिया। वहां से तेली के यहां पहुंची तो सब बर्तन चटक गये, उसने भी निकाल दिया। पानी पीने नदी पर पहुंची तो नदी सूख गई। सरोवर पहुंची तो हाथ का स्पर्श होते ही जल में कीड़े पड गये, उसी जल को पी कर आराम करने के लिए जिस पेड के नीचे जाती वह सूख जाता। वन और सरोवर की यह दशा देखकर ग्वाल इसे मन्दिर के गुसाई के पास ले गये। यह देखकर गुसाईं जी समझ गये यह कुलीन अबला आपत्ति की मारी हुई है। धैर्य बंधाते हुए बोले- बेटी! तू मेरे यहां रह, किसी बात की चिन्ता मत कर। रानी आश्रम में रहने लगी, परन्तु जिस वस्तु पर इसका हाथ लगे उसी में कीड़े पड जायें। दुःखी हो गुसाईं जी ने पूछा- बेटी! किस देव के अपराध से तेरी यह दशा हुई? रानी ने बताया – मैंने पति आज्ञा का उल्लंघन किया और महादेव जी के पूजन को नहीं गई। गुसाईं जी ने शिवजी से प्रार्थना की। गुसाईं जी बोले- बेटी! तुम सोलह सोमवार का व्रत करो। रानी ने सविधि व्रत पूर्ण किया। व्रत के प्रभाव से राजा को रानी की याद आई और दूतों को उसकी खोज करने भेजा। आश्रम में रानी को देखकर दूतों ने आकर राजा को रानी का पता बताया, राजा ने जाकर गुसाईं जी से कहा- महाराज! यह मेरी पत्नी है शिव जी के रुष्ट होने से मैंने इसका परित्याग किया था। अब शिवजी की कृपा से इसे लेने आया हूं। कृपया इसे जाने की आज्ञा दें। गुसाईं जी ने आज्ञा दे दी। राजा रानी नगर में आये। नगर वासियों ने नगर सजाया, बाजा बजने लगे। मंगलोच्चार हुआ। शिवजी की कृपा से प्रतिवर्ष सोलह सोमवार व्रत को कर रानी के साथ आनन्द से रहने लगा। अंत में शिवलोक को प्राप्त हुए। इसी प्रकार जो मनुष्य भक्ति सहित और विधिपूर्वक सोलह सोमवार व्रत को करता है और कथा सुनता है उसकी सब मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और अंत में शिवलोक को प्राप्त होता है।

 ॥ श्री शिव कवचम् ॥

अस्य श्री शिवकवच स्तोत्रमहामन्त्रस्य ऋषभयोगीश्वर ऋषिः । 


अनुष्टुप् छन्दः । 

श्रीसाम्बसदाशिवो देवता । 

ॐ बीजम् । नमः शक्तिः । शिवायेति कीलकम् । 

मम साम्बसदाशिवप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ॥


करन्यासः

ॐ सदाशिवाय अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । नं गङ्गाधराय तर्जनीभ्यां नमः । मं मृत्युञ्जयाय मध्यमाभ्यां नमः ।

शिं शूलपाणये अनामिकाभ्यां नमः । वां पिनाकपाणये कनिष्ठिकाभ्यां नमः । यम् उमापतये करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।


हृदयादिअङ्गन्यासः

ॐ सदाशिवाय हृदयाय नमः । नं गङ्गाधराय शिरसे स्वाहा । मं मृत्युञ्जयाय शिखायै वषट् ।

शिं शूलपाणये कवचाय हुम् । वां पिनाकपाणये नेत्रत्रयाय वौषट् । यम् उमापतये अस्त्राय फट् । भूर्भुवस्सुवरोमिति दिग्बन्धः ॥


ध्यानम्

वज्रदंष्ट्रं त्रिनयनं कालकण्ठ मरिन्दमम् ।

सहस्रकरमत्युग्रं वन्दे शम्भुम् उमापतिम् ॥

रुद्राक्षकङ्कणलसत्करदण्डयुग्मः पालान्तरालसितभस्मधृतत्रिपुण्ड्रः ।

पञ्चाक्षरं परिपठन् वरमन्त्रराजं ध्यायन् सदा पशुपतिं शरणं व्रजेथाः ॥


अतः परं सर्वपुराणगुह्यं निःशेषपापौघहरं पवित्रम् ।

जयप्रदं सर्वविपत्प्रमोचनं वक्ष्यामि शैवम् कवचं हिताय ते ॥


पञ्चपूजा

लं पृथिव्यात्मने गन्धं समर्पयामि । 

हम् आकाशात्मने पुष्पैः पूजयामि । 

यं वाय्वात्मने धूपम् आघ्रापयामि ।

रम् अग्न्यात्मने दीपं दर्शयामि । 

वम् अमृतात्मने अमृतं महानैवेद्यं निवेदयामि । 

सं सर्वात्मने सर्वोपचारपूजां समर्पयामि ॥


मन्त्रः

ऋषभ उवाच


नमस्कृत्य महादेवं विश्वव्यापिनमीश्वरम् । 

वक्ष्ये शिवमयं वर्म सर्वरक्षाकरं नृणाम् ॥ 1 ॥


शुचौ देशे समासीनो यथावत्कल्पितासनः । 

जितेन्द्रियो जितप्राणश्चिन्तयेच्छिवमव्ययम् ॥ 2 ॥


हृत्पुण्डरीकान्तरसन्निविष्टं स्वतेजसा व्याप्तनभो‌உवकाशम् । 

अतीन्द्रियं सूक्ष्ममनन्तमाद्यं ध्यायेत् परानन्दमयं महेशम् ॥


ध्यानावधूताखिलकर्मबन्ध- श्चिरं चिदानन्द निमग्नचेताः । 

षडक्षरन्यास समाहितात्मा शैवेन कुर्यात्कवचेन रक्षाम् ॥


मां पातु देवो‌உखिलदेवतात्मा संसारकूपे पतितं गभीरे । 

तन्नाम दिव्यं परमन्त्रमूलं धुनोतु मे सर्वमघं हृदिस्थम् ॥


सर्वत्र मां रक्षतु विश्वमूर्ति- र्ज्योतिर्मयानन्दघनश्चिदात्मा । 

अणोरणियानुरुशक्तिरेकः स ईश्वरः पातु भयादशेषात् ॥


यो भूस्वरूपेण बिभर्ति विश्वं पायात्स भूमेर्गिरिशो‌உष्टमूर्तिः । 

यो‌உपां स्वरूपेण नृणां करोति सञ्जीवनं सो‌உवतु मां जलेभ्यः ॥


कल्पावसाने भुवनानि दग्ध्वा सर्वाणि यो नृत्यति भूरिलीलः । 

स कालरुद्रो‌உवतु मां दवाग्नेः वात्यादिभीतेरखिलाच्च तापात् ॥


प्रदीप्तविद्युत्कनकावभासो विद्यावराभीति कुठारपाणिः । 

चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनेत्रः प्राच्यां स्थितो रक्षतु मामजस्रम् ॥


कुठारखेटाङ्कुश शूलढक्का- कपालपाशाक्ष गुणान्दधानः । 

चतुर्मुखो नीलरुचिस्त्रिनेत्रः पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम् ॥


कुन्देन्दुशङ्खस्फटिकावभासो वेदाक्षमाला वरदाभयाङ्कः । 

त्र्यक्षश्चतुर्वक्त्र उरुप्रभावः सद्यो‌உधिजातो‌உवतु मां प्रतीच्याम् ॥


वराक्षमालाभयटङ्कहस्तः सरोजकिञ्जल्कसमानवर्णः । 

त्रिलोचनश्चारुचतुर्मुखो मां पायादुदीच्यां दिशि वामदेवः ॥


वेदाभयेष्टाङ्कुशटङ्कपाश- कपालढक्काक्षरशूलपाणिः । 

सितद्युतिः पञ्चमुखो‌உवतान्माम् ईशान ऊर्ध्वं परमप्रकाशः ॥


मूर्धानमव्यान्मम चन्द्रमौलिः भालं ममाव्यादथ भालनेत्रः । 

नेत्रे ममाव्याद्भगनेत्रहारी नासां सदा रक्षतु विश्वनाथः ॥


पायाच्छ्रुती मे श्रुतिगीतकीर्तिः कपोलमव्यात्सततं कपाली । 

वक्त्रं सदा रक्षतु पञ्चवक्त्रो जिह्वां सदा रक्षतु वेदजिह्वः ॥


कण्ठं गिरीशो‌உवतु नीलकण्ठः पाणिद्वयं पातु पिनाकपाणिः । 

दोर्मूलमव्यान्मम धर्मबाहुः वक्षःस्थलं दक्षमखान्तको‌உव्यात् ॥


ममोदरं पातु गिरीन्द्रधन्वा मध्यं ममाव्यान्मदनान्तकारी । 

हेरम्बतातो मम पातु नाभिं पायात्कटिं धूर्जटिरीश्वरो मे ॥


ऊरुद्वयं पातु कुबेरमित्रो जानुद्वयं मे जगदीश्वरो‌உव्यात् । 

जङ्घायुगं पुङ्गवकेतुरव्यात् पादौ ममाव्यात्सुरवन्द्यपादः ॥


महेश्वरः पातु दिनादियामे मां मध्ययामे‌உवतु वामदेवः । 

त्रिलोचनः पातु तृतीययामे वृषध्वजः पातु दिनान्त्ययामे ॥


पायान्निशादौ शशिशेखरो मां गङ्गाधरो रक्षतु मां निशीथे । 

गौरीपतिः पातु निशावसाने मृत्युञ्जयो रक्षतु सर्वकालम् ॥


अन्तःस्थितं रक्षतु शङ्करो मां स्थाणुः सदा पातु बहिःस्थितं माम् । 

तदन्तरे पातु पतिः पशूनां सदाशिवो रक्षतु मां समन्तात् ॥


तिष्ठन्तमव्याद् भुवनैकनाथः पायाद्व्रजन्तं प्रमथाधिनाथः । 

वेदान्तवेद्यो‌உवतु मां निषण्णं मामव्ययः पातु शिवः शयानम् ॥


मार्गेषु मां रक्षतु नीलकण्ठः शैलादिदुर्गेषु पुरत्रयारिः । 

अरण्यवासादि महाप्रवासे पायान्मृगव्याध उदारशक्तिः ॥


कल्पान्तकालोग्रपटुप्रकोप- स्फुटाट्टहासोच्चलिताण्डकोशः । 

घोरारिसेनार्णव दुर्निवार- महाभयाद्रक्षतु वीरभद्रः ॥


पत्त्यश्वमातङ्गरथावरूथिनी- सहस्रलक्षायुत कोटिभीषणम् । 

अक्षौहिणीनां शतमाततायिनां छिन्द्यान्मृडो घोरकुठार धारया ॥


निहन्तु दस्यून्प्रलयानलार्चिः ज्वलत्त्रिशूलं त्रिपुरान्तकस्य । शार्दूलसिंहर्क्षवृकादिहिंस्रान् सन्त्रासयत्वीशधनुः पिनाकः ॥

दुः स्वप्न दुः शकुन दुर्गति दौर्मनस्य- दुर्भिक्ष दुर्व्यसन दुःसह दुर्यशांसि । उत्पाततापविषभीतिमसद्ग्रहार्तिं व्याधींश्च नाशयतु मे जगतामधीशः ॥

 आदित्य हृदय स्तोत्र


विनियोग
ॐ अस्य आदित्यह्रदय स्तोत्रस्य अगस्त्यऋषि: अनुष्टुप्छन्दः आदित्यह्रदयभूतो
भगवान् ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्माविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः

पूर्व पिठिता
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्‌ । रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्‌ ॥1॥
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्‌ । उपगम्याब्रवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा ॥2॥
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्मं सनातनम्‌ । येन सर्वानरीन्‌ वत्स समरे विजयिष्यसे ॥3॥
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्‌ । जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्‌ ॥4॥
सर्वमंगलमागल्यं सर्वपापप्रणाशनम्‌ । चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम्‌ ॥5॥


मूल -स्तोत्र
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्‌ । पुजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्‌ ॥6॥

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावन: । एष देवासुरगणांल्लोकान्‌ पाति गभस्तिभि: ॥7॥

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिव: स्कन्द: प्रजापति: । महेन्द्रो धनद: कालो यम: सोमो ह्यापां पतिः ॥8॥

पितरो वसव: साध्या अश्विनौ मरुतो मनु: । वायुर्वहिन: प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकर: ॥9॥

आदित्य: सविता सूर्य: खग: पूषा गभस्तिमान्‌ । सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकर: ॥10॥

हरिदश्व: सहस्त्रार्चि: सप्तसप्तिर्मरीचिमान्‌ । तिमिरोन्मथन: शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान्‌ ॥11॥

हिरण्यगर्भ: शिशिरस्तपनोऽहस्करो रवि: । अग्निगर्भोऽदिते: पुत्रः शंखः शिशिरनाशन: ॥12॥

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजु:सामपारग: । घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥13॥

आतपी मण्डली मृत्यु: पिगंल: सर्वतापन:। कविर्विश्वो महातेजा: रक्त:सर्वभवोद् भव: ॥14॥

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावन: । तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्‌ नमोऽस्तु ते ॥15॥

नम: पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नम: । ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नम: ॥16॥

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नम: । नमो नम: सहस्त्रांशो आदित्याय नमो नम: ॥17॥

नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नम: । नम: पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥18॥

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सुरायादित्यवर्चसे । भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नम: ॥19॥

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने । कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नम: ॥20॥

तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे । नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥21॥

नाशयत्येष वै भूतं तमेष सृजति प्रभु: । पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभि: ॥22॥

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठित: । एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्‌ ॥23॥

देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनां फलमेव च । यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमं प्रभु: ॥24॥

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च । कीर्तयन्‌ पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव ॥25॥

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगप्ततिम्‌ । एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ॥26॥

अस्मिन्‌ क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि । एवमुक्ता ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम्‌ ॥27॥

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्‌ तदा ॥ धारयामास सुप्रीतो राघव प्रयतात्मवान्‌ ॥28॥

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्‌ । त्रिराचम्य शूचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्‌ ॥29॥

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागतम्‌ । सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत्‌ ॥30॥

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमना: परमं प्रहृष्यमाण: ।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥31॥

सूर्य भगवान




ॐ अरुणाय नमः।

ॐ शरण्याय नमः।

ॐ करुणारससिन्धवे नमः।

ॐ असमानबलाय नमः।

ॐ आर्तरक्षकाय नमः।

ॐ आदित्याय नमः।

ॐ आदिभूताय नमः।

ॐ अखिलागमवेदिने नमः।

ॐ अच्युताय नमः।

ॐ अखिलज्ञाय नमः।

ॐ अनन्ताय नमः।

ॐ इनाय नमः।

ॐ विश्वरूपाय नमः।

ॐ इज्याय नमः।

ॐ इन्द्राय नमः।

ॐ भानवे नमः।

ॐ इन्दिरामन्दिराप्ताय नमः।

ॐ वन्दनीयाय नमः।

ॐ ईशाय नमः।

ॐ सुप्रसन्नाय नमः।

ॐ सुशीलाय नमः।

ॐ सुवर्चसे नमः।

ॐ वसुप्रदाय नमः।

ॐ वसवे नमः।

ॐ वासुदेवाय नमः।

ॐ उज्ज्वल नमः।

ॐ उग्ररूपाय नमः।

ॐ ऊर्ध्वगाय नमः।

ॐ विवस्वते नमः।

ॐ उद्यत्किरणजालाय नमः।

ॐ हृषीकेशाय नमः।

ॐ ऊर्जस्वलाय नमः।

ॐ वीराय नमः।

ॐ निर्जराय नमः।

ॐ जयाय नमः।

ॐ ऊरुद्वयाभावरूपयुक्तसारथये नमः।

ॐ ऋषिवन्द्याय नमः।

ॐ रुग्घन्त्रे नमः।

ॐ ऋक्षचक्रचराय नमः।

ॐ ऋजुस्वभावचित्ताय नमः।

ॐ नित्यस्तुत्याय नमः।

ॐ ऋकारमातृकावर्णरूपाय नमः।

ॐ उज्ज्वलतेजसे नमः।

ॐ ऋक्षाधिनाथमित्राय नमः।

ॐ पुष्कराक्षाय नमः।

ॐ लुप्तदन्ताय नमः।

ॐ शान्ताय नमः।

ॐ कान्तिदाय नमः।

ॐ घनाय नमः।

ॐ कनत्कनकभूषाय नमः।

ॐ खद्योताय नमः।

ॐ लूनिताखिलदैत्याय नमः।

ॐ सत्यानन्दस्वरूपिणे नमः।

ॐ अपवर्गप्रदाय नमः।

ॐ आर्तशरण्याय नमः।

ॐ एकाकिने नमः।

ॐ भगवते नमः।

ॐ सृष्टिस्थित्यन्तकारिणे नमः।

ॐ गुणात्मने नमः।

ॐ घृणिभृते नमः।

ॐ बृहते नमः।

ॐ ब्रह्मणे नमः।

ॐ ऐश्वर्यदाय नमः।

ॐ शर्वाय नमः।

ॐ हरिदश्वाय नमः।

ॐ शौरये नमः।

ॐ दशदिक्संप्रकाशाय नमः।

ॐ भक्तवश्याय नमः।

ॐ ओजस्कराय नमः।

ॐ जयिने नमः।

ॐ जगदानन्दहेतवे नमः।

ॐ जन्ममृत्युजराव्याधिवर्जिताय नमः।

ॐ उच्चस्थान समारूढरथस्थाय नमः।

ॐ असुरारये नमः।

ॐ कमनीयकराय नमः।

ॐ अब्जवल्लभाय नमः।

ॐ अन्तर्बहिः प्रकाशाय नमः।

ॐ अचिन्त्याय नमः।

ॐ आत्मरूपिणे नमः।

ॐ अच्युताय नमः।

ॐ अमरेशाय नमः।

ॐ परस्मै ज्योतिषे नमः।

ॐ अहस्कराय नमः।

ॐ रवये नमः।

ॐ हरये नमः।

ॐ परमात्मने नमः।

ॐ तरुणाय नमः।

ॐ वरेण्याय नमः।

ॐ ग्रहाणांपतये नमः।

ॐ भास्कराय नमः।

ॐ आदिमध्यान्तरहिताय नमः।

ॐ सौख्यप्रदाय नमः।

ॐ सकलजगतांपतये नमः।

ॐ सूर्याय नमः।

ॐ कवये नमः।

ॐ नारायणाय नमः।

ॐ परेशाय नमः।

ॐ तेजोरूपाय नमः।

ॐ हिरण्यगर्भाय नमः।

ॐ सम्पत्कराय नमः।

ॐ ऐं इष्टार्थदाय नमः।

ॐ अं सुप्रसन्नाय नमः।

ॐ श्रीमते नमः।

ॐ श्रेयसे नमः।

ॐ सौख्यदायिने नमः।

ॐ दीप्तमूर्तये नमः।

ॐ निखिलागमवेद्याय नमः।

ॐ नित्यानन्दाय नमः।

Thursday, September 9, 2021

 


 


 




 


 


 




 


 




 


 


 





 


 


 



 


 


 




 


 


 




 


 


 


 




 


 


 


 आरती गणेश Ghalin Lotangan


 

बाप्पा मोरया


निरूपपर गीत



मंत्र पुष्पांजली



Saturday, June 26, 2021

 हिंदू धर्म में पीपल का पेड़




हिंदू धर्म में पीपल के पेड़ का लोगों के लिए काफी सम्मान और महत्व है। लोग पेड़ की पूजा करते हैं और पूजा करते हैं। लेकिन, वास्तव में इसके इतिहास और उत्पत्ति के बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं है। वैसे, पीपल के पेड़ से जुड़ी कुछ दिलचस्प किंवदंतियां भी हैं। पेड़ अपने दिल के आकार के पत्तों के लिए जाना जाता है जिसमें लंबी संकीर्ण युक्तियाँ होती हैं। पीपल के पेड़ की उत्पत्ति का पता मोहनजोदड़ो शहर में सिंधु घाटी सभ्यता (3000 ईसा पूर्व - 1700 ईसा पूर्व) के समय से लगाया जा सकता है। उत्खनन इस तथ्य का सूचक है कि उस समय भी; पीपल के पेड़ की हिंदुओं द्वारा पूजा की जाती थी। पीपल के पेड़ की उत्पत्ति के बारे में अधिक जानने के लिए पढ़ें।


वैदिक काल में पीपल के पेड़ को काटकर प्राप्त लकड़ी का उपयोग आग उत्पन्न करने के लिए किया जाता था। प्राचीन पुराणों में एक ऐसी घटना का वर्णन किया गया है जिसमें राक्षसों ने देवताओं को परास्त किया और भगवान विष्णु पीपल के पेड़ में छिप गए। चूंकि, भगवान कुछ समय के लिए पेड़ में रहते थे; पेड़ लोगों के लिए बहुत महत्व रखता है। इस प्रकार, लोगों ने पेड़ को भगवान विष्णु की पूजा करने का एक साधन मानकर उसकी पूजा करना शुरू कर दिया। कुछ किंवदंतियाँ हैं, जो बताती हैं कि भगवान विष्णु का जन्म पीपल के पेड़ के नीचे हुआ था। कुछ कहानियां हैं, जो कहती हैं कि वृक्ष देवताओं की त्रिमूर्ति का घर है, जड़ ब्रह्मा है, ट्रंक विष्णु है और पत्तियां भगवान शिव का प्रतिनिधित्व करती हैं। एक और लोकप्रिय मान्यता है कि भगवान कृष्ण की मृत्यु पीपल के पेड़ के नीचे हुई थी। पीपल या पीपल (फिकस धार्मिक) वृक्ष जिसे संस्कृत में "अश्वत्थ" के रूप में भी जाना जाता है, एक बहुत बड़ा पेड़ है और भारत में पहला ज्ञात चित्रित वृक्ष है। सिंधु घाटी सभ्यता के शहरों में से एक मोहनजोदड़ो में खोजी गई एक मुहर में पीपल की पूजा की जाती है।


उपनिषदों में भी पीपल के वृक्ष का उल्लेख मिलता है। शरीर और आत्मा के अंतर को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने के लिए, पीपल के फल को एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में प्रयोग किया जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार जिस व्यक्ति को पुत्र नहीं है, उसे पीपल के पेड़ को अपनी संतान समझना चाहिए। यह कहता है कि जब तक पीपल का पेड़ जीवित रहेगा, तब तक परिवार समृद्ध और अच्छा नाम रखेगा। पीपल के पेड़ को काटना एक बड़ा पाप माना जाता है, जो लगभग एक ब्राह्मण की हत्या के बराबर है। स्कंद पुराणों में कहा गया है कि जो व्यक्ति पेड़ को काटता है वह नरक में अवश्य जाता है।


"इस वृक्ष का वास्तविक रूप इस दुनिया में नहीं देखा जा सकता है। कोई यह नहीं समझ सकता कि यह कहाँ समाप्त होता है, कहाँ से शुरू होता है, या इसकी नींव कहाँ है। लेकिन दृढ़ संकल्प के साथ इस दृढ़ता से जड़ वाले पेड़ को वैराग्य के हथियार से काट देना चाहिए। उसके बाद , व्यक्ति को उस स्थान की तलाश करनी चाहिए, जहां से जाने के बाद, कोई वापस नहीं आता है, और वहां उस परम पुरुषोत्तम भगवान को आत्मसमर्पण करना चाहिए, जिनसे सब कुछ शुरू हुआ और जहां से सब कुछ अनादि काल से बढ़ा है।


कुछ का मानना ​​​​है कि पेड़ में त्रिमूर्ति है, जड़ें ब्रह्मा हैं, ट्रंक विष्णु और पत्तियां शिव हैं। कहा जाता है कि देवता इस पेड़ के नीचे अपनी परिषद रखते हैं और इसलिए यह आध्यात्मिक समझ से जुड़ा है।


ब्रह्म पुराण और पद्म पुराण बताते हैं कि कैसे एक बार, जब राक्षसों ने देवताओं को हराया, विष्णु पीपल में छिप गए। इसलिए विष्णु की सहज पूजा बिना उनकी मूर्ति या मंदिर के पीपल पर की जा सकती है।


स्कंद पुराण में भी पीपल को विष्णु का प्रतीक माना गया है। माना जाता है कि उनका जन्म इसी पेड़ के नीचे हुआ था। उपनिषदों में, पीपल के फल का उपयोग शरीर और आत्मा के बीच के अंतर को समझाने के लिए एक उदाहरण के रूप में किया जाता है: शरीर उस फल की तरह है, जो बाहर रहकर चीजों को महसूस करता है और भोगता है, जबकि आत्मा बीज की तरह है, जो अंदर है और इसलिए चीजों का गवाह है।



पीपल के पेड़ से जुड़ी किंवदंतियां


एक बार सभी देवताओं ने भगवान शिव के दर्शन करने का निश्चय किया। हालांकि, ऋषि नारद ने उन्हें सूचित किया कि यह यात्रा के लिए एक अनुचित समय था। लेकिन इंद्र ने सलाह नहीं मानी और देवताओं को आश्वासन दिया कि जब वे उनकी रक्षा के लिए वहां होंगे तो डरने की कोई बात नहीं है। नारद ने देवी पार्वती को इंद्र के अहंकार की सूचना दी। उसने देवताओं को श्राप दिया कि वे अपनी पत्नियों के साथ पेड़ों में बदल जाएंगे। जब देवताओं ने क्षमा मांगी, तो उन्होंने वादा किया कि पेड़ों के रूप में, वे प्रसिद्धि प्राप्त करेंगे। इस प्रकार भगवान इंद्र आम के पेड़ में बदल गए, भगवान ब्रह्मा पलाश के पेड़ बन गए और भगवान विष्णु पीपल के पेड़ में बदल गए। माना जाता है कि शनिवार को पीपल के पेड़ पर देवी लक्ष्मी का वास होता है। माना जाता है कि पीपल के पेड़ के नीचे भगवान कृष्ण की मृत्यु हुई थी। शास्त्रों में पीपल के पेड़ को काटना पाप माना गया है। पीपल के पेड़ को भगवान यम (मृत्यु के देवता) और पूर्वजों का निवास भी माना जाता है। माना जाता है कि इसकी जड़ों में चढ़ा हुआ प्रसाद उन तक पहुंचता है। एक और मिथक पीपल और शनिवार के बीच संबंध के बारे में है। क्लासिक्स के अनुसार अश्वत्था और पीपला दो राक्षस थे जिन्होंने लोगों को परेशान किया। अश्वत्थ पीपल और पीपल ब्राह्मण का रूप धारण करेंगे। नकली ब्राह्मण लोगों को पेड़ को छूने की सलाह देता था, और जैसे ही उन्होंने किया, अश्वत्था उन्हें मार डालेगा। बाद में उन दोनों को शनि ने मार डाला। इनके प्रभाव के कारण शनिवार के दिन पेड़ को छूना सुरक्षित माना जाता है। मान्यता है कि जो व्यक्ति इस पेड़ को लगाता है वह जीवन और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है।


एक अन्य किंवदंती कहती है, शनिवार को ही पीपल के पेड़ को छूना पसंद किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि एक बार की बात है, अश्वत्था और पीपल नाम के दो राक्षस थे, जो लोगों को प्रताड़ित और परेशान करते थे। अश्वत्थ ने पीपल का रूप धारण किया और पीपल ने ब्राह्मण का वेश धारण किया। ब्राह्मण लोगों को पीपल के पेड़ को छूने की सलाह देते थे और जैसे ही उन्होंने ऐसा किया, उन्हें राक्षस अश्वत्थ ने मार डाला। शनिदेव ने दोनों राक्षसों का संहार किया। शनि महाराज के प्रबल प्रभाव के कारण ही शनिवार के दिन पीपल के पेड़ को छूना सुरक्षित माना जाता है। लोगों की मान्यता है कि शनिवार के दिन देवी लक्ष्मी भी इस पेड़ में निवास करती हैं। जिन महिलाओं को पुत्र की प्राप्ति नहीं होती है, वे सूंड या उसकी शाखाओं पर लाल धागा बांधती हैं और देवताओं से उसे आशीर्वाद देने और उसकी इच्छा पूरी करने के लिए कहती हैं।


पीपल के पेड़ से संबंधित अनुष्ठान


संतान प्राप्ति या मनचाही वस्तु या व्यक्ति की प्राप्ति के लिए महिलाएं पीपल के पेड़ की परिक्रमा करती हैं। पीपल का पेड़ शनि और हनुमान के मंदिरों में लगाया जाता है। इस पेड़ की पूजा शनिवार के दिन की जाती है, खासकर श्रावण के महीने में, क्योंकि इस दिन देवी लक्ष्मी पेड़ के नीचे विराजमान होती हैं। ऐसा माना जाता है कि जो भी व्यक्ति पेड़ को सींचता है, वह अपनी संतान के लिए पुण्य अर्जित करता है, उसके दुखों का निवारण होता है और रोग दूर होते हैं। संक्रामक रोगों और शत्रुओं से बचने के लिए भी पीपल के पेड़ की पूजा की जाती है।


दो राक्षसों, अश्वथा और पीपली के बारे में भी एक और कहानी है, जिन्होंने पीपल के पेड़ को अपना घर बना लिया और पेड़ के पास आने वाले सभी पर हमला किया और उन्हें मार डाला। अंत में शनि भगवान ने दोनों असुरों का नाश किया और इसलिए माना जाता है कि शनिवार के दिन पीपल के पेड़ को छूना शुभ होता है।


बंगाल के आदिवासी पीपल के पेड़ को वासुदेव कहते हैं। वे वैशाख के महीने में और कठिनाई के समय पौधे को पानी देते हैं। बंगाल में पीपल और बरगद के पेड़ों की शादी की जाती है।


पीपल का पेड़ घर या मंदिर की पूर्व दिशा में लगाया जाता है। पेड़ लगाने के आठ या 11 या 12 साल बाद, पेड़ के लिए उपनयन संस्कार किया जाता है। पेड़ के चारों ओर एक गोल चबूतरा बनाया गया है। नारायण, वासुदेव, रुक्मिणी, सत्यभामा जैसे विभिन्न देवताओं का आह्वान और पूजा की जाती है। उपनयन संस्कार के सभी अनुष्ठान किए जाते हैं और फिर पेड़ का विवाह तुलसी के पौधे से किया जाता है।


तमिलनाडु में, पीपल और नीम के पेड़ एक-दूसरे के इतने करीब लगाए जाते हैं कि बड़े होने पर आपस में मिल जाते हैं। उनके नीचे एक नाग (साँप) की मूर्ति रखी जाती है और उसकी पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि इससे उपासक को धन की प्राप्ति होती है। महिलाएं सुबह जल्दी स्नान करती हैं और इन पेड़ों की परिक्रमा करती हैं।


अवध में, यदि किसी लड़की की कुंडली में विधवा होने की भविष्यवाणी की जाती है, तो उसका विवाह पहले चैत्र कृष्ण या आश्विन कृष्ण तृतीया पर एक पीपल के पेड़ से किया जाता है। पुराने समय में जब लड़कियों के पुनर्विवाह की मनाही थी, तो युवा विधवाओं का विवाह पीपल के पेड़ से किया जाता था और फिर पुनर्विवाह की अनुमति दी जाती थी।


महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में रहने वाले धनताले जाति के लोग विवाह समारोह में पीपल के पेड़ की एक शाखा का उपयोग करते हैं। शाखा, पानी के एक बर्तन के साथ, दूल्हा और दुल्हन के बीच रखी जाती है। ग्राम देवता को पीपल के पेड़ के नीचे स्थापित किया जाता है जो कई स्थानों पर पंचायत आयोजित करने के लिए छायांकित स्थान भी प्रदान करता है।


अमावस्या पर, ग्रामीण नीम और पीपल के बीच प्रतीकात्मक विवाह करते हैं, जो आमतौर पर एक दूसरे के पास उगाए जाते हैं। हालांकि यह प्रथा किसी भी धार्मिक ग्रंथ द्वारा निर्धारित नहीं है, लेकिन इन पेड़ों के 'विवाह' के महत्व पर विभिन्न मान्यताएं हैं। ऐसी ही एक मान्यता में, नीम का फल शिवलिंग का प्रतिनिधित्व करता है और इसलिए, नर। पीपल का पत्ता स्त्री की शक्ति योनि का प्रतिनिधित्व करता है। नीम के फल को शिवलिंग को चित्रित करने के लिए एक पीपल के पत्ते पर रखा जाता है, जो यौन मिलन के माध्यम से सृजन का प्रतीक है, और इसलिए दोनों पेड़ 'विवाहित' हैं। समारोह के बाद, ग्रामीण अपने पापों से छुटकारा पाने के लिए पेड़ों की परिक्रमा करते हैं।


वैज्ञानिक अनुसंधान


वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि पेड़ों में पीपल ही एक ऐसा पेड़ है जो दिन-रात भरपूर मात्रा में ऑक्सीजन पैदा करता है, जो जीवन के लिए बहुत जरूरी है। पीपल जीवनदायिनी ऑक्सीजन प्रदान करती है, जो इसे जीवनदायिनी सिद्ध करती है। निरंतर शोध से यह भी सिद्ध हुआ है कि पीपल के पत्तों के साथ हवा की ध्वनि और परस्पर क्रिया धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से संक्रमण के जीवाणुओं को भी मार देती है। आयुर्वेद की पुस्तक के अनुसार पीपल के पत्ते, फल और छाल रोगों के नाशक हैं। पीपल के पेड़ में मीठा और कड़वा दोनों स्वाद होता है और इसमें ठंडक देने का गुण होता है। माना जाता है कि पीपल के पत्तों पर रखा शहद चाटने से वाणी की अनियमितता दूर होती है। इसकी छाल से चमड़े के उपचार में इस्तेमाल होने वाले टैनिन का उत्पादन होता है। इसके पत्तों को घी में गर्म करने से घाव ठीक हो जाते हैं। छाल, फल और कलियों को अलग-अलग चीजों के साथ खाने से कफ, पित्त, सूजन, सूजन और अस्वस्थता आदि से संबंधित रोग ठीक हो जाते हैं। इस पेड़ की कोमल छाल और कली प्रमेह (एक रोग जिसमें वीर्य मूत्र के माध्यम से निकलता है) को ठीक करता है। इस पेड़ के फल का चूर्ण रूप भूख बढ़ाता है और कई बीमारियों को ठीक करता है

 सोने की दिशा


नींद स्वैच्छिक शारीरिक कार्यों के निलंबन और चेतना के पूर्ण या आंशिक प्राकृतिक निलंबन द्वारा वहन किए गए आराम को लेने के लिए है; जाग्रत होना बंद करो। शारीरिक रूप से, नींद शरीर के लिए बहाली और नवीनीकरण की एक जटिल प्रक्रिया है। आमतौर पर जब हम सोते हैं तो हमें यह नहीं पता होता है कि हमें अपना सिर किस दिशा में रखना है। हम जिस दिशा में सोते हैं उसका हमारे शरीर पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

 

सांस्कृतिक महत्व

 

जब पार्वती ने नहाते समय हल्दी से एक लड़का पैदा किया, जब वह स्नान कर रही थी। जब भगवान शिव लौटे तो उन्होंने एक अजनबी को उनके पास जाने से मना कर दिया, और गुस्से में लड़के के सिर पर प्रहार किया। पार्वती अत्यंत दुःख में टूट गईं और उन्हें शांत करने के लिए, शिव ने अपने दल (गण) को किसी भी सोते हुए व्यक्ति का सिर लाने के लिए भेजा, जो उत्तर की ओर मुख कर रहा था। कंपनी को एक सोता हुआ हाथी मिला और उसके कटे हुए सिर को वापस लाया, जो तब लड़के के शरीर से जुड़ा हुआ था। हिंदुओं का मानना ​​है कि उत्तर दिशा में सोने से मृत्यु होती है। परंपराओं के अनुसार दक्षिण यम (मृत्यु के देवता) की दिशा है, हमें दक्षिण में पैर नहीं रखना चाहिए और केवल एक मृत शरीर को उस स्थिति में रखना चाहिए।

अब हम समझ सकते हैं कि प्राचीन लोगों ने ऐसा क्यों कहा था, कि हमारी बुद्धि पूर्व की ओर मुख या घर से सुधरती है, और जीवन दक्षिण की ओर मुख करके लंबा होता है।

 

वैज्ञानिक कारण

 

सोते समय आपका सिर जिस दिशा में होता है, उसका आपके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। हेड प्लेसमेंट उस दिशा को संदर्भित करता है जिस दिशा में लेटते समय आपके सिर का शीर्ष इंगित करता है।

हमें सलाह दी जाती है कि उत्तर या पश्चिम दिशा में सिर करके सोने से बचें।


हम सभी जानते हैं कि हमारे ग्रह में एक चुंबकीय ध्रुव है जो उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ है और उत्तर में धनात्मक ध्रुव और दक्षिण में ऋणात्मक ध्रुव है। अब, स्वास्थ्य वैज्ञानिक हमें बताते हैं कि हमारे पास भी सिर पर सकारात्मक ध्रुव और पैरों पर नकारात्मक के साथ एक समान चुंबकीय खिंचाव है।


यह सर्वविदित है कि समान ध्रुव प्रतिकर्षित करते हैं और विपरीत ध्रुव न केवल वैज्ञानिक बल्कि सामाजिक क्षेत्रों में भी आकर्षित होते हैं। जब हम अपना सिर उत्तर की ओर रखते हैं, तो दो सकारात्मक पक्ष एक दूसरे को पीछे हटाते हैं और दोनों के बीच संघर्ष होता है।


चूंकि पृथ्वी में अधिक चुंबकीय बल है, हम हमेशा हारे हुए होते हैं, और सुबह सिरदर्द या भारीपन के साथ उठते हैं।


लाभ

 

पूर्व दिशा की ओर : शुभ। हमेशा सुनिश्चित करें कि आप अपना सिर जितना हो सके पूर्व दिशा में रखें।

दिन में सोने से बचें। रात का खाना हल्का और जल्दी करें। शहद के साथ दूध पिएं।

नसों को तनाव देने वाले गंभीर या कामुक साहित्य को पढ़ने से बचें। सोने से पहले अपने दिमाग को शांत करने के लिए कुछ मंत्रों को दोहराएं।


दक्षिण दिशा की ओर : शुभ। सोने के लिए सबसे अच्छी स्थिति यह है कि आपका सिर दक्षिण की ओर और पैर उत्तर की ओर हों।


उत्तर या पश्चिम की ओर सिर: परिणाम: खतरनाक। कभी भी अपना सिर उत्तर की ओर और पैर दक्षिण की ओर करके न सोएं। भयानक सपने और परेशान नींद लाता है। आप दुखी महसूस करेंगे। चिड़चिड़ापन, निराशा और भावनात्मक अस्थिरता विकसित होगी। जब आप सोते हैं तो यह आपके सकारात्मक स्पंदनों को चूस लेता है। आप अपनी इच्छाशक्ति का 50% खो देंगे और सोते समय आपकी आत्मा शक्ति नहीं बढ़ेगी। आपका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य खराब रहेगा।

 

उत्तर: यह पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के अनुरूप है और मानव शरीर में अशांति पैदा करेगा जिसमें उच्च लौह (हीमोग्लोबिन) सामग्री होती है और रोग लाती है और पश्चिम मस्तिष्क को सुस्त कर देता है

 

रोचक तथ्य

 

जब हम दक्षिण दिशा में अपना सिर रखते हैं, तो आपसी आकर्षण होता है और हम किसी बीमारी से पीड़ित होने तक, स्वस्थ, ताजा और मुक्त जागते हैं।


हम यह भी जानते हैं कि हमारा ग्रह पश्चिम से पूर्व की ओर घूमता है, और सूर्य का चुंबकीय क्षेत्र पूर्व की ओर से पृथ्वी में प्रवेश करता है। यह चुंबकीय बल हमारे सिर में प्रवेश करता है यदि हम पूर्व में सिर के साथ झूठ बोलते हैं और पैरों से बाहर निकलते हैं, चुंबकत्व और बिजली के नियमों के अनुसार ठंडे सिर और गर्म पैरों को बढ़ावा देते हैं। जब सिर पश्चिम की ओर रखा जाता है, ठंडे पैर और गर्म सिर - परिणाम - सुबह के लिए एक अप्रिय शुरुआत।

भगवान हनुमान के शरीर पर सिंदूर (सिंदूर) क्यों लगाया जाता है?



भारतीय समाज में सिंदूर या सिंदूर का बहुत महत्व है। विवाहित हिंदू महिलाओं द्वारा बालों के विभाजन में सिंदूर लगाने की परंपरा को अत्यंत शुभ माना जाता है और सदियों से चली आ रही है। पारंपरिक हिंदू समाज में, विवाहित हिंदू महिलाओं के लिए सिंदूर पहनना अनिवार्य माना जाता है। यह उनके पति की लंबी उम्र के लिए उनकी इच्छा की एक दृश्य अभिव्यक्ति है।


एक प्रचलित मान्यता के अनुसार, एक बार जब माता सीता अपने माथे पर सिंदूर लगा रही थीं, तो हनुमान ने इसे देखा और उनसे ऐसा करने का कारण पूछा। उसने उत्तर दिया कि सिंदूर लगाकर, उसने अपने पति भगवान राम के लिए एक लंबा जीवन सुनिश्चित किया। वह जितना अधिक सिंदूर लगाती थी, राम की आयु उतनी ही लंबी होती थी। भक्त हनुमान यह सुनकर प्रसन्न हुए और भगवान राम के भक्त होने के नाते उन्होंने राम की अमरता सुनिश्चित करने के प्रयास में अपने पूरे शरीर को सिंदूर से लगा दिया। भगवान राम के प्रति अपने प्रेम को साबित करने के लिए हनुमान ने अपने पूरे शरीर को सिंदूर से ढक दिया। भगवान राम वास्तव में इससे प्रभावित हुए और उन्होंने वरदान दिया कि जो लोग भविष्य में सिंदूर के साथ भगवान हनुमान की पूजा करेंगे, उनकी सभी मुश्किलें दूर हो जाएंगी। इसलिए हनुमान जी की मूर्ति पर हमेशा सिंदूर लगा रहता है।

 हिन्दू धर्म के अनुसार दीपक जलाने के लिए तेल का प्रयोग करें



देसी घी - पूजा और दीप जलाने के लिए गाय का घी सबसे अच्छा माना जाता है। लेकिन आजकल देसी घी के नाम पर जो बाजार में बिकता है वह देसी घी ही नहीं है। "घी" देशी देसी गाय की देशी नस्ल का होना चाहिए। यदि वैदिक प्रक्रिया द्वारा तैयार किया जाता है तो घी सकारात्मक ऊर्जा से आध्यात्मिक रूप से सक्रिय हो जाता है, इस प्रकार कुल शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक सद्भाव स्थापित होता है। अग्निपुराण घी के दीपक की सबसे अधिक प्रशंसा करता है लेकिन यह भी कहता है कि चक्रों और नाड़ियों की सफाई के लिए। घी का दीपक मणिपुर और अनाहत चक्रों को शुद्ध करता है। गाय के घी से दीपक जलाने से आसपास के वातावरण में सभी सकारात्मक स्पंदन आकर्षित होंगे। इससे दरिद्रता भी समाप्त होगी और धन, परिवार के स्वास्थ्य में सुधार होगा। इससे देवी महालक्ष्मी की कृपा भी प्राप्त होगी। असली गाय का घी सस्ता नहीं है और हालांकि हम यह ब्लॉग किसी विशेष ब्रांड को बढ़ावा देने के लिए नहीं लिख रहे हैं, फिर भी व्यक्तिगत अनुभव के माध्यम से हम कह सकते हैं कि असली गाय के घी के लिए पथमेड़ा, गोसेवा कुछ बहुत ही विश्वसनीय ब्रांड हैं। असली गाय के घी के लिए गांवों में स्थानीय गाय के दूध विक्रेता से भी संपर्क किया जा सकता है।


पंच दीपम तेल - पंच दीपा तेल या पंचदीपम तेल को सभी बुराईयों को दूर करने और अपने घर में ज्ञान, स्वास्थ्य और धन लाने के लिए एक दीपक जलाने की जोरदार सलाह दी जाती है। पंच दीपम तेल सही और शुद्ध अनुपात में 5 तेलों का मिश्रण है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आपकी प्रार्थनाओं की पवित्रता और पवित्रता सुरक्षित रहे। इन 5 तेलों में से प्रत्येक का अपना महत्व है और शुद्धतम अर्थों में सही अनुपात में मिलाया जाना चाहिए। पंच दीपम तेल से दीपक जलाने से आपके घर में सुख, स्वास्थ्य, धन, प्रसिद्धि और समृद्धि आती है। एक आदर्श पंच दीपम तेल में तिल का तेल या नारियल का तेल (35%), गाय का घी (20%), महुआ तेल (20%), अरंडी का तेल (15%) और नीम का तेल (10%) होना चाहिए, हालांकि यह बाजार में उपलब्ध है अन्य अनुपात में भी। यह गाय के घी (व्यक्तिगत रूप से अनुभवी) के बाद दूसरा सर्वश्रेष्ठ है।


तिल का तेल - तिल का तेल या अधिक लोकप्रिय रूप से जिंजेली तेल या तिल के तेल के रूप में जाना जाता है, इसके साथ एक दीपक जलाने से दोष समाप्त हो जाते हैं और बुरी आत्माओं को दूर कर देते हैं। तिल का तेल दीर्घकालिक समस्याओं को दूर करने में मदद करता है और किसी के जीवन से बाधाओं को दूर करेगा। यदि आप भगवान भैरव का मंत्र जप या साधना कर रहे हैं, तो तिल का तेल दीपक जलाने के लिए अत्यधिक अनुशंसित है। यह पंच दीपम तेल से सस्ता है, लेकिन सरसों के तेल से महंगा है।


सरसों का तेल - दीपक जलाने के लिए सरसों का तेल सबसे लोकप्रिय विकल्प है क्योंकि यह हर जगह आसानी से उपलब्ध है और जेब के अनुकूल है। दीया जलाने के लिए सरसों के तेल का प्रयोग करने से शनि ग्रह से संबंधित दोष दूर होते हैं और रोगों से भी बचाव होता है। बाजार में उपलब्ध किसी भी अन्य उत्पाद की तरह सरसों का तेल शुद्ध से लेकर मिश्रित तक कई गुणों में आता है। हमारे द्वारा आजमाए गए लोकप्रिय ब्रांड पतंजलि, गुरुकुल, स्वदेशी आदि हैं। कोई भी स्थानीय तेल मिल से संपर्क कर सकता है और सरसों के तेल का शुद्धतम रूप प्राप्त कर सकता है।


नारियल का तेल - दक्षिण भारत में नारियल तेल तेल का अधिक लोकप्रिय विकल्प है। कहा जाता है कि पूजा के दीयों में इसका प्रयोग करने से गणेश जी प्रसन्न होते हैं। नारियल तेल का शुद्धतम रूप बाजार में आसानी से उपलब्ध है।


अन्य तेल - नीम, महुआ, अरंडी, चमेली का तेल आदि कम लोकप्रिय तेल हैं जिनका उपयोग दीयों को जलाने के लिए किया जाता है, लेकिन कोई इनका उपयोग कर सकता है। अधिकतर बार इन्हें सुचारू उपयोग के लिए अन्य तेलों के साथ मिश्रित किया जाता है।

 श्री दुर्गा आपदुद्धाराष्टकम्


नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकम्पे नमस्ते जगद्व्यापिके विश्वरूपे |

नमस्ते जगद्वन्द्यपादारविन्दे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||१||


नमस्ते जगच्चिन्त्यमानस्वरूपे नमस्ते महायोगिविज्ञानरूपे |

नमस्ते नमस्ते सदानन्द रूपे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||२||


अनाथस्य दीनस्य तृष्णातुरस्य भयार्तस्य भीतस्य बद्धस्य जन्तोः |

त्वमेका गतिर्देवि निस्तारकर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||३||


अरण्ये रणे दारुणे शुत्रुमध्ये जले सङ्कटे राजग्रेहे प्रवाते |

त्वमेका गतिर्देवि निस्तार हेतुर्नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||४||


अपारे महदुस्तरेऽत्यन्तघोरे विपत् सागरे मज्जतां देहभाजाम् |

त्वमेका गतिर्देवि निस्तारनौका नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||५||


नमश्चण्डिके चण्डोर्दण्डलीलासमुत्खण्डिता खण्डलाशेषशत्रोः |

त्वमेका गतिर्विघ्नसन्दोहहर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||६||


त्वमेका सदाराधिता सत्यवादिन्यनेकाखिला क्रोधना क्रोधनिष्ठा |

इडा पिङ्गला त्वं सुषुम्ना च नाडी नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||७||


नमो देवि दुर्गे शिवे भीमनादे सरस्वत्यरुन्धत्यमोघस्वरूपे  |

विभूतिः सतां कालरात्रिस्वरूपे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||८||


शरणमसि सुराणां सिद्धविद्याधराणां मुनिदनुजवराणां व्याधिभिः पीडितानाम् |

नृपतिगृहगतानां दस्युभिस्त्रासितानां त्वमसि शरणमेका देवि दुर्गे प्रसीद ||९||


|| इति सिद्धेश्वरतन्त्रे हरगौरीसंवादे आपदुद्धाराष्टकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ||

 देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्

न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो

न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः।

न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं

परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम ॥१॥

 

विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया

विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्।

तदेतत्क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥२॥

 

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः

परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः।

मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥३॥

 

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता

न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया।

तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥४॥

 

परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया

मया पच्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि।

इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता

निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम ॥५॥

 

श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा

निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः।

तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं

जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ ॥६॥

 

चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो

जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः।

कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं

भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम ॥७॥

 

न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे

न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः।

अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै

मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ॥८॥

 

नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः

किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः।

श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे

धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव ॥९॥

 

आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं

करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि।

नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः

क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ॥१०॥

 

जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि।

अपराधपरम्परावृतं न हि माता समुपेक्षते सुतम ॥११॥

 

मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि।

एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु ॥१२॥

 

॥इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्॥

 II श्री मंगलचंडिकास्तोत्रम् II 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सर्वपूज्ये देवी मङ्गलचण्डिके I 

ऐं क्रूं फट् स्वाहेत्येवं चाप्येकविन्शाक्षरो मनुः II 

पूज्यः कल्पतरुश्चैव भक्तानां सर्वकामदः I

दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् II

मन्त्रसिद्धिर्भवेद् यस्य स विष्णुः सर्वकामदः I

ध्यानं च श्रूयतां ब्रह्मन् वेदोक्तं सर्व सम्मतम् II 

देवीं षोडशवर्षीयां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् I 

सर्वरूपगुणाढ्यां च कोमलाङ्गीं मनोहराम् II 

श्वेतचम्पकवर्णाभां चन्द्रकोटिसमप्रभाम् I

वन्हिशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् II 

बिभ्रतीं कबरीभारं मल्लिकामाल्यभूषितम् I

बिम्बोष्टिं सुदतीं शुद्धां शरत्पद्मनिभाननाम् II 

ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां सुनीलोल्पललोचनाम् I 

जगद्धात्रीं च दात्रीं च सर्वेभ्यः सर्वसंपदाम् II 

संसारसागरे घोरे पोतरुपां वरां भजे II 

देव्याश्च ध्यानमित्येवं स्तवनं श्रूयतां मुने I

प्रयतः संकटग्रस्तो येन तुष्टाव शंकरः II 

शंकर उवाच रक्ष रक्ष जगन्मातर्देवि मङ्गलचण्डिके I

हारिके विपदां राशेर्हर्षमङ्गलकारिके II 

हर्षमङ्गलदक्षे च हर्षमङ्गलचण्डिके I 

शुभे मङ्गलदक्षे च शुभमङ्गलचण्डिके II

मङ्गले मङ्गलार्हे च सर्व मङ्गलमङ्गले I 

सतां मन्गलदे देवि सर्वेषां मन्गलालये II 

पूज्या मङ्गलवारे च मङ्गलाभीष्टदैवते I 

पूज्ये मङ्गलभूपस्य मनुवंशस्य संततम् II 

मङ्गलाधिष्टातृदेवि मङ्गलानां च मङ्गले I 

संसार मङ्गलाधारे मोक्षमङ्गलदायिनि II

सारे च मङ्गलाधारे पारे च सर्वकर्मणाम् I 

प्रतिमङ्गलवारे च पूज्ये च मङ्गलप्रदे II 

स्तोत्रेणानेन शम्भुश्च स्तुत्वा मङ्गलचण्डिकाम् I 

प्रतिमङ्गलवारे च पूजां कृत्वा गतः शिवः II

देव्याश्च मङ्गलस्तोत्रं यः श्रुणोति समाहितः I

तन्मङ्गलं भवेच्छश्वन्न भवेत् तदमङ्गलम् II

II इति श्री ब्रह्मवैवर्ते मङ्गलचण्डिका स्तोत्रं संपूर्णम् II 

 


 Maa Durga Mantras ( मां दुर्गा के मंत्र )



यहाँ आप कई प्रकार के माँ दुर्गा के मंत्र पा सकता है जिससे आप कई मुसीबतों से बाहर आ सकते है अपने जीवन में। पूर्ण श्रद्धा से किया गया मंत्र उच्चारण फल अवश्य देता है ।


1. उपयुक्त इच्छा को पूरा करने के लिए दुर्गा मंत्र । यह मंत्र सभी प्रकार की सिद्धिः को पाने में मदद करता है, यह मंत्र सबसे प्रभावी और गुप्त मंत्र माना जाता है और सभी उपयुक्त इच्छाओं को पूरा करने की शक्ति इस मंत्र में होती है।


ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नम:


2. यह देवी माँ का बहुत लोकप्रिय मंत्र है। यह मंत्र देवी प्रदर्शन के समारोहों में आवश्यक है।

दुर्गा सप्तशती प्रदर्शन से पहले इस मंत्र को सुनाना आवश्यक है।इस मंत्र की शक्ति : यह मंत्र दोहराने से हमें सुंदरता ,बुद्धि और समृद्धि मिलती है। यह आत्म की प्राप्ति में मदद करता है।


"ॐ अंग ह्रींग क्लींग चामुण्डायै विच्चे "


3. गौरी मंत्र लायक पति मिलने के लिए दुर्गा मंत्र 


" हे गौरी शंकरधंगी ! यथा तवं शंकरप्रिया,

तथा मां कुरु कल्याणी ! कान्तकान्तम् सुदुर्लभं "


4. दुर्गा सप्तशती से शक्तिशाली मंत्र , सब प्रकार के कल्याण के लिये दुर्गा मंत्र 


“सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।

शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥”


5.धन प्राप्ति के लिए दुर्गा मंत्र 


“दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो:

स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।

दारिद्र्यदु:खभयहारिणि का त्वदन्या

सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽ‌र्द्रचित्ता॥”


6.आकर्षण के लिए दुर्गा मंत्र 


“ॐ क्लींग ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती ही सा,

बलादाकृष्य मोहय महामाया प्रयच्छति "


7. विपत्ति नाश के लिए दुर्गा मंत्र 


“शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।

सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥”


8.शक्ति प्राप्ति के लिए दुर्गा मंत्र 


सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि।

गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥


9.रक्षा पाने के लिए दुर्गा मंत्र 


शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।

घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि:स्वनेन च॥


10. आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति के लिए दुर्गा मंत्र 


देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥


11. भय नाश के लिए दुर्गा मंत्र 


“सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।

भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥


12. महामारी नाश के लिए दुर्गा मंत्र 


जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥


13. सुलक्षणा पत्नी की प्राप्ति के लिए दुर्गा मंत्र 


पत्‍‌नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।

तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥


14. पाप नाश के लिए दुर्गा मंत्र 


हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।

सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽन: सुतानिव॥


15. भुक्ति-मुक्ति की प्राप्ति के लिए दुर्गा मंत्र 


विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि


16. सभी के कल्याण के लिए दुर्गा मंत्र


देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या

निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूत्र्या।

तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां

भकत्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा न: ।।


17. शक्तिशाली दुर्गा मंत्र हर तरह के भय एवं संकट से आपकी रक्षा के लिए


रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र |

दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम् ||


18. विघ्नों के नाश, दुर्जनों व शत्रुओं को मात व अहंकार के नाश के लिए दुर्गा गायत्री मंत्र 


ॐ गिरिजायै विद्महे शिव धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ||

 Navdurga ( नवदुर्गा )- The nine forms of Goddess Durga


पौराणिक मान्यता है कि शक्ति ही संसार का कारण है, जो अनेक रूपों में हमारे अंदर और आस-पास चर-अचर, जड़-चेतन, सजीव-निर्जीव सभी में अनेक रूपों में समाई है। शक्ति के इसी महत्व को जानते हुए हिन्दू धर्म के शास्त्र-पुराणों में शक्ति उपासना व जागरण की महिमा बताई गई है। जिससे मर्यादा और संयम के द्वारा शक्ति संचय व सदुपयोग का संदेश जुड़ा है। धार्मिक परंपराओं में नवरात्रि के रूप में प्रसिद्ध इस विशेष घड़ी में शक्ति की देवी के रूप में पूजा होती है। जिनमें शक्ति के 3 स्वरूप महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती प्रमुख रूप से पूजनीय है। जिनको बल, वैभव और ज्ञान की देवी माना गया है। इसी तरह धर्मग्रंथों में सांसारिक जीवन में अलग-अलग रूपों में शक्ति संपन्नता के लिए शक्ति के नौ स्वरूपों यानी नवदुर्गा की पूजा का महत्व बताया गया है। नवदुर्गा का अर्थ है दुर्गा के नौ स्वरूप। दुर्गा को दुर्गति का नाश करने वाली कहा जाता है। चूंकि नवरात्रि में रात में शक्ति पूजा का महत्व है। इसी कारण मान्यता है कि नवरात्रि की नौ रातों में नौ शक्तियों वाली दुर्गा के अलग-अलग स्वरूपों की पूजा अलग-अलग कामनाओं को पूरा कर रातों-रात बलवान, बुद्धिमान और धनवान बना देती है। जानें, नवरात्रि की नौ रात किस देवी के अद्भुत स्वरुप की भक्ति पूरी करती है कौन-सी इच्छा?


1. शैलपुत्री - नवरात्रि के पहले दिन मां शैलपुत्री की उपासना की जाती है। यह कल्याणी भी कही जाती है। इनकी उपासना से सुखी और निरोगी जीवन मिलता है।


2. ब्रह्मचारिणी- नवरात्रि के दूसरे दिन तपस्विनी रूप मां ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है। इनकी उपासना से पुरूषार्थ, अध्यात्मिक सुख और मोक्ष देने वाली होती है। सरल शब्दों में प्रसन्नता, आनंद और सुख के लिए इस शक्ति की साधना का महत्व है।


3. चंद्रघंटा - नवरात्रि की तीसरे दिन नवदुर्गा के तीसरी शक्ति चंद्रघंटा को पूजा जाता है। इनकी भक्ति जीवन से सभी भय दूर करने वाली मानी गई है।


4. कूष्मांडा - नवरात्रि के चौथे दिन मां कूष्मांडा की उपासना का महत्व है। यह उपासना भक्त के जीवन से कलह, शोक का अंत कर लंबी उम्र और सम्मान देने वाली होती है।


5. स्कंदमाता - नवरात्रि के पांचवे दिन स्कन्दमाता की पूजा की जाती है। माता की उपासना जीवन में प्रेम, स्नेह और शांति लाने वाली मानी गई है।


6. कात्यायनी - नवरात्रि के छठे दिन मां कात्यायनी की पूजा का महत्व है। माता की पूजा व्यावहारिक जीवन की बाधाओं को दूर करने के साथ तन और मन को ऊर्जा और बल देने वाली मानी गई है।


7. कालरात्रि - नवरात्रि के सातवें दिन दुर्गा के तामसी स्वरूप मां कालरात्रि की उपासना की जाती है, किंतु सांसारिक जीवों के लिये यह स्वरूप शुभ और काल से रक्षा करने वाला है। इनकी उपासना पराक्रम और विपरीत हालात में भी शक्ति देने वाला होता है।


8. महागौरी - नवरात्रि के आठवें दिन महागौरी की पूजा की जाती है। मां का यह करूणामयी रूप है। इनकी उपासना भक्त को अक्षय सुख देने वाली मानी गई है।


9. सिद्धिदात्री - नवरात्रि के अंतिम या नौवे दिन मां सिद्धिदात्री की उपासना का महत्व है। इनकी उपासना समस्त सिद्धि देने वाली होती है। व्यावहारिक जीवन के नजरिए से ज्ञान, विद्या, कौशल, बल, विचार, बुद्धि में पारंगत होने के लिए माता सिद्धिदात्री की उपासना बहुत ही प्रभावी होती है।


 श्री दत्तात्रेयस्तोत्रम्


जटाधरं पाण्डुरंगं शूलहस्तं दयानिधिम्।
सर्वरोगहरं देवं दत्तात्रेयमहं भजे ॥१॥
जगदुत्पत्तिकर्त्रे च स्थितिसंहारहेतवे।
भवपाशविमुक्ताय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥२॥
जराजन्मविनाशाय देहशुद्धिकराय च।
दिगंबर दयामूर्ते दत्तात्रेय नमोस्तुते॥३॥
कर्पूरकान्तिदेहाय ब्रह्ममूर्तिधराय च।
वेदशास्स्त्रपरिज्ञाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥४॥
ह्रस्वदीर्घकृशस्थूलनामगोत्रविवर्जित!
पञ्चभूतैकदीप्ताय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥५॥
यज्ञभोक्त्रे च यज्ञेय यज्ञरूपधराय च।
यज्ञप्रियाय सिद्धाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥६॥
आदौ ब्रह्मा मध्ये विष्णुरन्ते देवः सदाशिवः।
मूर्तित्रयस्वरूपाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥७॥
भोगालयाय भोगाय योगयोग्याय धारिणे।
जितेन्द्रिय जितज्ञाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥८॥
दिगंबराय दिव्याय दिव्यरूपधराय च।
सदोदितपरब्रह्म दत्तात्रेय नमोस्तुते॥९॥
जंबूद्वीप महाक्षेत्र मातापुरनिवासिने।
भजमान सतां देव दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१०॥
भिक्षाटनं गृहे ग्रामे पात्रं हेममयं करे।
नानास्वादमयी भिक्षा दत्तात्रेय नमोस्तुते॥११॥
ब्रह्मज्ञानमयी मुद्रा वस्त्रे चाकाशभूतले।
प्रज्ञानघनबोधाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१२॥
अवधूत सदानन्द परब्रह्मस्वरूपिणे ।
विदेह देहरूपाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१३॥
सत्यरूप! सदाचार! सत्यधर्मपरायण!
सत्याश्रय परोक्षाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१४॥
शूलहस्त! गदापाणे! वनमाला सुकन्धर!।
यज्ञसूत्रधर ब्रह्मन् दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१५॥
क्षराक्षरस्वरूपाय परात्परतराय च।
दत्तमुक्तिपरस्तोत्र! दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१६॥
दत्तविद्याड्यलक्ष्मीश दत्तस्वात्मस्वरूपिणे।
गुणनिर्गुणरूपाय दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१७॥
शत्रुनाशकरं स्तोत्रं ज्ञानविज्ञानदायकम्।
आश्च सर्वपापं शमं याति दत्तात्रेय नमोस्तुते॥१८॥
इदं स्तोत्रं महद्दिव्यं दत्तप्रत्यक्षकारकम्।
दत्तात्रेयप्रसादाच्च नारदेन प्रकीर्तितम् ॥१९॥
इति श्रीनारदपुराणे नारदविरचितं
श्रीदत्तात्रेय स्तोत्रं संपुर्णमं।।
।। श्रीगुरुदेव दत्त ।।